Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 8
________________ विषय-परिचय ७ उपयोग अर्थाधिकार जयधवलाका यह बारहवां भाग है। इसमें १ उपयोग, २ चतुःस्थान, ३ व्यञ्जन और ४ सम्यक्त्व ( दर्शन मोहोपशामना ) ये चार अर्थाधिकार संगृहीत हैं। इनमें कसायप्राभृतके १५ अर्थाधिकारों से उपयोग यह सातवाँ अर्थाधिकार है। इसमें क्रोधादि कषायोंके उपयोगस्वरूपका विस्तारसे विवेचन किया गया है । इस अर्थाधिकारमें कुल ७ सूत्रगाथाएँ आई हैं। उनमेंसे पहली सूत्रगाथा 'केवचिरं उवजोगो' इत्यादि है। इसमें तीन अर्थ संगृहीत हैं । यथा १. क्रोधादि कषायोंमेंसे एक-एक कषायमें एक जीवका कितने काल तक उपयोग होता है ? २. क्रोधादि कषायोंमेंसे किस कषायका उपयोग काल किस कषायके उपयोग कालसे अधिक होता है? ३. नरकादि गतियोंमेंसे किस गतिका जीव किस कषायमें पुनः पुनः उपयोगसे उपयुक्त होता है? अर्थात नारकी जीव अपनी पर्यायमें क्या क्रोधोपयोगसे बहुत बार परिणमता है या मानोपयोग, मायोपयोग या लोभोपयोगसे बहुत बार परिणमता है ? इसी प्रकार शेष तीन गतियोंमें भो पृच्छा करनी चाहिए। ___ इस प्रकार इस प्रथम गाथासूत्र में उक्त तीन अर्थ पृच्छारूपसे निबद्ध हैं। उनका निर्णय चूर्णिसूत्रोंके अनुसार क्रमसे करते हुए बतलाया है १. क्रोधादि चारों कषायोंका जघन्य और उत्कृष्ट उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि कषाय परिवर्तनके बिना इससे अधिक काल तक एक कषायका अवस्थान नहीं पाया जाता। यद्यपि जीवस्थान आदिमें क्रोधका मरणकी अपेक्षा और मान, माया तथा लोभका मरण और व्याघात इन दोनोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय बतलाया है, पर कषायप्राभूतके चूर्णिसूत्रोंमें इस प्रकार चारों कषायोंके जघन्य कालका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इतना अवश्य है कि यहाँ गतियोंमें निष्क्रमण और प्रवेशकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय अवश्य स्वीकार किया गया है। जैसे कोई नारकी नरकमें मरणके समय क्रोध कषायसे एक समय तक उपयुक्त रहा और मरकर दूसरे समयमें क्रोधकषायके साथ तिर्यञ्च या मनुष्य हो गया। इस प्रकार नरक गतिमें क्रोधकषायका निष्क्रमणकी अपेक्षा एक समय काल उपलब्ध हुआ। इसी प्रकार प्रवेशकी अपेक्षा भी क्रोध कषायका एक समय काल घटित कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ कोई तिर्यञ्च या मनुष्य मरणसे अन्तर्मुहूर्त पूर्व क्रोधकषायरूपसे परिणत हुआ और जब क्रोधकषायके कालमें एक समय शेष रहा तब मरकर नारकी हो गया। इस प्रकार प्रवेशकी अपेक्षा भी नरकगतिमें क्रोधकषायका एक समय काल उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार शेष कषायोंका प्रवेश और निष्क्रमणकी अपेक्षा एक-एक समय काल घटित कर लेना चाहिए। २. दूसरे अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए चूणिसूत्रोंमें क्रोधादि चारों कषायोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालके अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि मानकषायका जघन्य काल सबसे स्तोक है । उससे क्रोध, माया और लोभकषायका जघन्य काल उत्तरोत्तर विशेष अधिक है । पुनः लोभकषायके जघन्य कालसे मानकषायका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। तथा इसके उत्कृष्ट कालसे क्रोध, माया और लोभकषायका उत्कृष्ट काल उत्तरोत्तर विशेष अधिक है। यहाँ प्रवाहमान उपदेशके अनुसार विशेषका प्रमाण अन्तमुहर्त है जो कि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आगे चारों गतियों और चौदह जीवसमासोंमें इसी अल्पबहत्वको घटित करके बतलाते हुए जयधवलाकारने चूर्णिसूत्र ( पृ० २३ ) के 'तेसिं चेव उवदेसेण' पदको ध्यानमें रखकर भगवान आर्यमक्षु और नागहस्ति इन दोनोंके एतद्विषयक उपदेशको प्रवाहमान बतलाया है।

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