Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 7
________________ छ जेमके “ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा” अने एम करता अजाणपणे पण कर्म करता ईश्वरनी महत्ता वधारवामां आवी जाय छे आसमान-जमीन जेटलं अंतर धरावता आ विषयो एकमेक एवा मेळवी देवामां आवे छे के बन्नेने छुटा पाडीने समजवा मुश्केल थइ जाय छे. कर्म अगर ईश्वरनी महत्ता वधवाने बदले बन्नेनी महत्ता तूटी जाय छे. आमाथी पछी ईश्वरवाद, एकेश्वरवाद ने सृष्टिवाद विगेरे बाबतो खडी थइ जाय छे, बाकी जो कर्म सिद्धांतने बराबर समजवाना दृष्टिकोणथी समजवामां आवे तो आ ईश्वरवाद, एकेश्वरवाद ने सृष्टिवाद विगेरे तमम असंबद्ध बाबतो पत्ताना महेलनी माफक तूटी पडे. जैनो कर्म अने ईश्वर ए बन्ने अलग अलग रूपे माने छे. (१) कर्म ने एक कल्पना शील विषय नही, एकला सारा नरसा विचारो अगर कार्यों ज नहि परन्तु अजीव तत्त्वना एक भाग रूप पुद्गल द्रव्य, तेना एक भाग तरीके माने छे के जेना परमाणुओ चौदे राजलोकमा खीचोखीच भरेला छे. (२) कर्मो आत्माने अनादिकालथी वलगेला छे (३) आत्मा अने कर्म वच्चेनो संबंध अमुक अपेक्षाए क्षीरनीर जेवो छ (४) आत्मा स्वयं पोताना शुभ-अशुभ परिणामो द्वारा शुभाशुभ कर्मनो बंध करे छे (५) अने ते ते प्रमाणे आत्मा तेमु फल भोगव्या करे छ (६) सांसारिक सुखनो अनुभव करावनार शुभकर्म पण आत्मा माटे बंधनरूप छे (७) आ कर्मने लीधे ज आत्मा संसारमा रखडे छे (८) अने आ कर्मना बंधनोने ज्यारे संपूर्णपणे तोडी नाखे-क्षय करी नाखे पोतानाथी सम्पूर्णतया अलग पाडी दे अने शुद्धस्वभावनु प्रकटीकरण करे त्यारे आत्मा ईश्वर (सिद्ध) थाय छे मुक्त थाय छे (९) अने ते आत्मा

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