Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 52
________________ ૩૫ १०४. अनुद्योतचतुष्कमासहस्रारात् । सहस्रार पछीना आनत विगेरे देवोमां उद्योत, तिर्यचद्विक अने तिर्यंचायुष्य विना बंध कहेवो । हवे इंद्रियमार्गणाने विष बंध कहे छे१०५. एकेन्द्रियपृथ्व्यम्बुवृक्षविकलाः । एकेंद्रिय, पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय अने विकलेंद्रिय (अपर्याप्त तिर्यंचनी जेम) मिथ्यात्वगुणस्थानमा १०९ बांधे। १०६. न सूक्ष्मत्रयोदशः सास्वादने । सास्वादनगुणस्थानमां सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर, आतप, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंड अने छेवटुंए तेर प्रकृति विना ९६ बांधे। १०७. वाय्वग्न्योर्जिनैकादशनरत्रिकोच्चाः। वायुकाय अने अग्निकाय-जिननाम, देवद्विक, वैकियद्विक, आहारकद्विक, देवायुष्य, नरकत्रिक, मनुष्यत्रिक अने उच्चगोत्र ए पंदर प्रकृति विना १०५ प्रकृति बांधे । अने गुणठाणु एक ज मिथ्यात्व होय । अहिं निषेध पाछलना सूत्रथी आवे छे. हवे योगमागणामां बंध कहे छे१०८. औदारिकमिश्र नाहारकषट्कम् । औदारिकमिश्रकाययोगमा ओघे आहारकद्विक, देवायुष्य अने नरकत्रिक ए छ प्रकृति विना ११४ होय ।

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