Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 86
________________ 'षाधिक,ते इंद्रियअपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक,तेइंद्रियअपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबध तेथी विशेषाधिक, ते इंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, चउरिद्रिय पर्याप्तमा जघन्यस्थितिबंध तेथी विशेषाधिक,चउरिंद्रियअपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक,चरिंद्रिय अपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबध तेथी विशेषाधिक, बउरिंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, असंज्ञिपंचेंद्रिय पर्याप्तमा जघन्यस्थितिबंध संख्यातगुण, असंज्ञिप चेंद्रिय अपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, असं ज्ञपंचेंद्रिय अपर्याप्तमा उत्कृष्ट स्थितिबंध तेथी विशेषाधिक, असंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, तेथी यतिमा उत्कृष्टस्थितिबंध संख्यातगुण, तेथी देशविर तिमां जघन्यस्थितिबंध अने उत्कृष्टस्थितिबध तथा अविरत सम्यग्दृष्टि अने संक्षिपंचेंद्रिय अपर्याप्त-पर्याप्तमां जघन्यस्थितिबध भने उत्कृष्टस्थितिबंध अनुक्रमे संख्यातगुण होय. २११. सङ्कलेशेन ज्येष्ठा विशुद्धेर पराऽनरामरतिर्यगाऽऽ युषाम् । मनुष्य देव अने तिर्यचना आयुष्यने वजी ने बाकीनी सर्वकर्मप्रकृतिनी उत्कृष्टस्थिति तीव्र कषायना उदये बंधाथ अने अपरा-जघन्या विशुद्धि वडे बंधाय. हवे योगर्नु अल्पबहुत्व कहे छे२१२. सूक्ष्मनिगोद-बादरविकलामनसमन-आद्यपर्याप्त लवाद्यद्विकगुरुपर्याप्तलघुगुर्वपर्याप्तत्रसगुरु-पर्या

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