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आगमोद्धारक -ग्रन्थमालायाः चतुःपञ्चाशं रत्नम्
णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।
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पू० आगमोद्वारकाऽऽचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वर प्रणीतं
कर्मार्थ-सूत्रम्
( संक्षिप्त गुर्जरार्थसहित )
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-संशोधकःपूज्य - गच्छाधिपति आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागर सूरीश्वर शिष्यः शतावधानी पंन्यास लाभसागरगणिः
वीर संवत् २४९९ विक्रमसंवत् २०२९ आगमो० सं० २४
प्रतयः ५०० ]
[ मूल्यम् २-००
-प्राप्तिस्थान
श्री जैनानंद - पुस्तकालय गोपीपुरा, सुरत.
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आगमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः चतुःपञ्चाशं रत्नम्
णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स।। पू० आगमोद्धारकाऽऽचार्य आनन्दसागरसी पीतं
कामसूत्रम्
(संक्षिप्तगुर्जरार्थसहित)
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-संशोधकःपूज्य - गच्छाधिपति-आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः
शतावधानी पंन्यास लाभसागरगणिः वीर संवत् २४९९ विक्रमसंवत् २०२९ आगमो० सं० २४ प्रतयः ५०० ]
[मूल्यम् २-००
--प्राप्तिस्थानश्री जैनानंद-पुस्तकालय गोपीपुरा, सुरत.
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प्रकाशकआगमोद्धारक ग्रन्थमालाना एक कार्यवाहक
शा-रमणलाल जयचन्द्र कपडयन (जि.) खेडा
सुसिला-तंबयपत्तारूढा सव्वे जिणागमा जेण । निमविया आणंदोदहिसूरीसो सया जयउ ॥१॥
मुद्रकमोहनलाल मगनलाल बदामी, जैनानंद प्रिन्टिग प्रेस, दरियामहेल, * सरत.
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प्रकाशकीय-निवेदन
प० पू० गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म. नी निश्रामां वि० सं० २०१० वर्षे भागमोद्धारकग्रन्थमालानी स्थापना था हती. आ ग्रन्थमालाए त्यारबाद प्रकाशनोनी ठीक ठीक प्रगति करी छे.
सूरीश्वरजीनी पुण्यकृपाए ‘कर्मार्थ-सत्र' नामनो ग्रन्थ आगमोबारकग्रंथमालाना ५५ मा रत्न तरीके प्रसिद्ध करतां अमोने अत्यंत हर्ष थाय छे.
भानी प्रेस कोपी तथा संशोधन पू० गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म० नी पवित्र दृष्टि नीचे शतावधानी पंन्यास श्रीलाभसागरजी गणिए करेल छे. ते बदल तेओश्रीनो तथा जैनानंद प्रिन्टिंग प्रेसना मालिक शा. मोहनलाल बदामीए वगर वेतने मुद्रण करी आप्यु ते बधानो आभार मानीए छीए.
ली. प्रकाशक
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आगमोद्धारकाssचार्यश्री-आनन्दसागरसूरीश्वर -
स्तुत्यष्टकम् |
॥२॥
जयन्तु सूरिराजास्ते सार्वशासनमण्डनाः । आगमोद्धारकाः पूज्या आचार्याऽऽनन्दसागराः ॥ १ ॥ वाचनासुगमत्वार्थं निर्युक्ति वृत्तिभूषिताः । सूत्रज्ञैरागमाः सर्वे यैः संशोध्य प्रकाशिताः यैः सद्भिर्जैन साहित्य - सेवा ऽर्पिताऽऽत्मजीवनैः । प्राच्याः परःशता ग्रन्था विशोध्य प्रकटीकृताः ||३|| मुनीनां श्रुतबोधाय पत्तनादिपुरेषु यैः । षाण्मासिक्यः शुभाः सप्त दत्ता आगमवाचनाः ॥४॥ तलाटिकायां सिद्धाद्रे - स्तथा सूरतबन्दिरे । जाते यदुपदेशेन रम्ये आगममन्दिरे भोपावराऽभिधं तीर्थं मालवाऽवनिमण्डनम् येभ्यः प्रसिद्धिमापन्नं श्री शान्ति जिन भूषितम् प्रबुद्धो मालवे येभ्यो दिलीपसिंहभूपतिः । प्रावर्त्तयत् स्वग्रामेष्व - मारिं पर्युषणादिषु यैरादिविंशिकावृत्तिः श्रीपञ्चसूत्रवार्तिकम् । तथा कर्मार्थसूत्रं चे-त्यादिग्रन्था विनिर्मिताः | ८|| जिनबिम्बप्रतिष्ठादि - कृत्यान्येवं विधाय ये । ऋतुखद्वयहस्ताब्दे सूर्यपुरे दिवं गताः
॥५॥
॥६॥
७॥
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सर्जन अने सर्जक
पीठिका :- जगतना अन्य दर्शनो-धर्मो स्वीकारे या नहि, परन्तु आ एक सनातन सत्य छे के जैनदर्शनना स्याद्वाद अने कर्म सिद्धांतनी तुलना कोई टकी शके तेम नथी.
स्याद्वाद : आ सिद्धांतनु बीजु नाम छे भिन्न अपेक्षाए प्रत्येक पदार्थमां अस्तित्व, नास्तित्व स्वीकार तेनुं नाम स्याद्वाद छे.
अपेक्षावाद - भिन्न
विगेरे अनेक धर्मोनो
आ सिद्धांत एवो मजबूत सिद्धांत छे के अन्य दर्शनकारो सिद्धांत कदाच न स्वीकारे परंतु सामान्य जनव्यवहारमां तेओ पण आ सिद्धांतने अनुसरता होय छे. जेमके घणी वखत तबीयत केम छे ? आना उत्तरमां जणावातु होय छे के ठीकाठीक छे आ उत्तरमां स्पष्टपणे स्याद्वाद दृष्टिगोचर थाय छे.
कर्म सिद्धांत : – स्याद्वाद पछीनो आ सिद्धांत छे जैनदर्शनमां जणाववामां आवेला नवतत्त्व [ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर निर्जरा, बंध, मोक्ष ] मांथी छेल्ला साते तत्त्वो मुख्यतया कर्मसिद्धांतने लगता रहेला छे. कर्मने भाग्य - विधि विगेरे शब्दोथी तो इतर-दर्शनकारो पण आलेखे छे, तेमज मानव जीवनमां पूर्वकर्मनी महत्ता विशेषतया समायेली छे. सदाचारथी शुभ कर्म दुराचारथी अशुभ कर्म बंधाय छे. पूर्वे जे कर्म बांध्य होय ते आत्माने भोगवबु पडे छे कर्मना बंधनो तूटे त्यारे आत्मा मुक्त बने छे विगेरे विगेरे बाबतो द्वारा इतर धर्मोमां पण कर्मनी महत्ता दर्शावाइ होय छे. परंतु तेओ कर्मना सिद्धांतमां ईश्वरतत्त्वने पण मेळवी दे
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छ जेमके “ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा” अने एम करता अजाणपणे पण कर्म करता ईश्वरनी महत्ता वधारवामां आवी जाय छे आसमान-जमीन जेटलं अंतर धरावता आ विषयो एकमेक एवा मेळवी देवामां आवे छे के बन्नेने छुटा पाडीने समजवा मुश्केल थइ जाय छे. कर्म अगर ईश्वरनी महत्ता वधवाने बदले बन्नेनी महत्ता तूटी जाय छे. आमाथी पछी ईश्वरवाद, एकेश्वरवाद ने सृष्टिवाद विगेरे बाबतो खडी थइ जाय छे, बाकी जो कर्म सिद्धांतने बराबर समजवाना दृष्टिकोणथी समजवामां आवे तो आ ईश्वरवाद, एकेश्वरवाद ने सृष्टिवाद विगेरे तमम असंबद्ध बाबतो पत्ताना महेलनी माफक तूटी पडे. जैनो कर्म अने ईश्वर ए बन्ने अलग अलग रूपे माने छे.
(१) कर्म ने एक कल्पना शील विषय नही, एकला सारा नरसा विचारो अगर कार्यों ज नहि परन्तु अजीव तत्त्वना एक भाग रूप पुद्गल द्रव्य, तेना एक भाग तरीके माने छे के जेना परमाणुओ चौदे राजलोकमा खीचोखीच भरेला छे. (२) कर्मो आत्माने अनादिकालथी वलगेला छे (३) आत्मा अने कर्म वच्चेनो संबंध अमुक अपेक्षाए क्षीरनीर जेवो छ (४) आत्मा स्वयं पोताना शुभ-अशुभ परिणामो द्वारा शुभाशुभ कर्मनो बंध करे छे (५) अने ते ते प्रमाणे आत्मा तेमु फल भोगव्या करे छ (६) सांसारिक सुखनो अनुभव करावनार शुभकर्म पण आत्मा माटे बंधनरूप छे (७) आ कर्मने लीधे ज आत्मा संसारमा रखडे छे (८) अने आ कर्मना बंधनोने ज्यारे संपूर्णपणे तोडी नाखे-क्षय करी नाखे पोतानाथी सम्पूर्णतया अलग पाडी दे अने शुद्धस्वभावनु प्रकटीकरण करे त्यारे आत्मा ईश्वर (सिद्ध) थाय छे मुक्त थाय छे (९) अने ते आत्मा
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फरी कदी कर्मनो बंध करतो नथी (१०) उपरोक्त बन्ने विषयोने बहु समज अने सूक्ष्मताथी समजवानो प्रयास करवामां आवे त्यारे आ बन्नेनी यथार्थता समजाय छ भने ते बाद चोकसपणे आपणने लागे के जैनो पोताना तीर्थ करने सर्वज्ञ ने सर्वदशी तरीके ओलखावे छे ते सत्य छे.
कर्मसाहित्य : कर्मने अंगे श्रीभगवतीसूत्रमा ठेर ठेर मलता प्रश्नो, कम्मपपडी, चंद्रमहत्तरनो छछो कर्मग्रंथ अने आ० देवेन्द्रसूरिए रचेल पांच कर्मग्रन्थो तथा ते तमामनी वृत्ति, दश पूर्वधर उमास्वाति वाचकवर्यना तत्त्वार्थ सूत्रनो आठमो अध्याय तथा प्रस्तुत कर्मार्थ सूत्र विगेरे विशाल प्रमाणमां साहित्य आगम अने आगमेतर ग्रंथोमा जोवा जाणवा मले छे आ विशाल साहित्यमां भगवतीना प्रश्नो, तत्त्वार्थ नो आठमो अध्याय अने आ प्रस्तुत कृति ते सूत्रात्मक छे बाकी लगभग पद्यात्मक साहित्य छे.
विशिष्टता : आ कृतिनी विशेषता ए छे के भगवतीमांनां प्रश्नो सूत्रात्मक जरूर छे परन्तु प्राकृतभाषा निबद्ध छे स्वतंत्र कृति नथी तेमज तत्त्वार्थनो आठमो अध्याय ते दश अध्यायनो एक भाग छे एटले ते पण स्वतंत्र कृति नथी आम वीरप्रभुना निर्वाणना २४९९ वर्षना प्राप्त थता साहित्यमा अने जोवा जाणवा मलता इतिहासना प्रकाशमा प्रथमवार आ कृति आवी रही छे जे संस्कृतभाषा निबद्ध अने सूत्रात्मक छे अने तेनु नाम कर्मार्थपत्र छे.
परिचय : सूत्र विभागमा वहें चायेल आ कृतिमा पांच कर्मग्रंथने संक्षेपथी समाववानो प्रयास करवामां आवेल होवाथी कर्मग्रंथनु संक्षिप्तरूप अगर संक्षिप्तकरण शब्दनो प्रयोग अयुक्त नहि गणाय.
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पहेला कर्मभेदाधिकारमा कर्मना आठ मेद अने उत्तरमेदो दर्शावाया छे आमां १-२४ सूत्रो छे त्यार पछीना छ सूत्रो (२५-३७) मां २ सूत्रो १४ गुणस्थानक तथा जीवस्थानना नामोनां छे. पछीना चार सूत्रोमा ते ते जीवस्थानकोमा केटला केटला गुणस्थानको होय छे ते जणाव्युं छे त्रीजो योगाधिकार (३१-३७) सात सूत्रो द्वारा दर्शाव्यो छे आमां एक सूत्र द्वारा योगना भेदो नामसहित जणाववामा आव्या छ पछीना छ सूत्रो द्वारा १४ जीवस्थानकोमा कया कया योगोनु अस्तित्व होय ते प्ररूप्यु छे. पछी उपयोगाधिकार-लेश्याधिकार विगेरे अधिकारो छे.
महत्ता : जेम नाना नाना परन्तु निरंतर वहेता निर्मल झरणाओ विशाल नदीनु सर्जन करे छे तेम सर्वस्व अर्पणनी तमन्ना अद्वितीयधैर्यता सत्यप्रत्येनी अविचल वफादारी विगेरे गुणो (मानवीमां) महानतानु सर्जन करे छे आ महानता तेओना नानामां नाना कायो मां पण देखाइ आवे छे आवी आ एक लघुकृति छे जे आगमोनी-'अप्पग्गंथ महत्थ” तेमज लौकिक-बिंदुमां सिंधुनी उक्तिने सार्थक करावती बहु थोडा सूत्रो द्वारा विशाल अर्थ-भावार्थ आवरी लइने कृतिकारनी महानताने दर्शावती जाय छे.
महानपूर्वज : विक्रमनी १९ मी सदीनो सूर्य हजी मध्याह्ने आव्यो न हतो (१९ मी सदीनी शरुआत)। जतिओ, श्रीपूज्यो, भट्टारकोनी सत्ता घसाती रही हती वादलघेरी अमासनी घोर अंधारी रजनीमा जेम कोक कोक तारलिया चमकता होय तेम शासनमा संवेगी मुनिओमा पण सनातनीभो-स्थानकवासीबो-तेरापंथीओ-दिगम्बरो-त्रिस्तुतिक (त्रणथोय)
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मतवालाओ जनसमाजमां भ्रमणाओ उत्पन्न करी रह्या हता. शासनप्रत्यनीको परमात्माना शासनने छिन्नभिन्न करवा चोमेरथी मरणीया प्रयास करी रह्या हता वो थी चाली आवती संवेगी मुनिओ, श्रीपूज्यो, भट्टारको अने यतिओ वच्चेनी सुमेलभरी परिस्थितिनो संवेगीओ द्वारा जाणे अजाणे तेओनी सत्ताने पडकारवामां आवता करुण अंत आवी रह्यो हतो यतिओ पण निरपेक्ष थता चाल्या हता. ज्ञाननी मात्रा पण घणी नीची उतरी गई हती. आवी गंभीर अस्थिर परिस्थिति वच्चे पण जेम काजल धेरी अमासनी घोर अंधकार भरी रजनीमां पण कोक को तारलिया टमटमता होय छे अने अंधकारने उलेचवानो प्रयास करता होय छे तेम शासन प्रत्येनी सम्पूर्ण वफादारीमाथी जन्मेली त्याग अने स्वार्पणनी भावनाथी शासनने स्थिर दृढ अने तेजस्विताने अमर राखवा जे महात्मा मुनिओ कार्य द्वारा विशाल जनसमाजना हैयाना सिंहासन उपर बिराजमान होय तो एकमात्र विद्वद्वरेन्द्र यथार्थनामा श्रीमद् झवेरसागरजी महाराज साहेब हता.
महापुरुष : आ महापुरुषना जीवन विषे कोइ विशेष माहिती उपलब्ध नथी पण तेमना गाढ परिचयमा आवेला लिंबडी उदयपुर विगेरेना वयोवृद्ध श्रावको द्वारा सांभलवा मलता संस्मरणो तेमज तेमनी उपर आवेला पत्रो तेमना जीवननी अमर यशोगाथा आपणी समक्ष रजु करे छे.
तेओश्रीना जीवनना अंतिम वर्षो मां पण शिष्यपरिवारनो विशाला वर्ग न हतो.
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वर्गगमनना आगले वर्षे 'सात कुलांगार करता एक कुलदीपक सारो' ए उक्ति यथार्थ करावे तेवा एक मुमुक्षुने स्वशिष्य तरीके दीक्षा आपी मुनि आनंदसागरजी नामे जाहेर कर्या अने काल पण जाणे कुलदीपक शिष्य शवानी राह जोइने उभेलो होय तेम बीजा ज वर्षे सं. १९४८ मागसर सुदी ११ दिवसे लिंबडी मुकामे शिष्यसह विशालजनसमुदायना मुखे नमस्कार महामंत्रना श्रवणपूर्वक शासन प्रत्येनी अविचल वफादारी नूतन दीक्षित मुनि आनंदसागरजीने भलाव्याना पूर्ण संतोष साथे चिरनिद्रामा पोढी गया त्यारबाद तेमनो नश्वर देह पण पंचमहाभूतमा मली अनंत क्षितिजमां विलीन थइ गयो पूज्यश्री विदाय साथे रही गइ तेमनी विशाल स्मृतिओ स्मृतिशेषरूप एकमात्र शिष्यरत्न ते ज कर्मार्थसूत्र कृतिना सर्जनहार.
जीवन अने कवन : महान विभूतिना शिष्य थवा सर्जायेला आ महापुरुषनो जन्म वि. सं. १९३१ मा अषाड वद अमावास्या जे लोकमा दिवासाना पर्व तरीके उजवाय छे ते दिवसे नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिए अनशन सह समाधिपूर्वक पोताना नश्वरदेहनो त्याग करीने जे धरतीने जैन इतिहासमा शोकपूर्ण अमरता अपावेल छे ते पुण्यभूमि कपडवंज (कर्पटवाणिज्य) नामना गाममां गांधी भायचंदभाइना पुत्र मगनभाइ गांधीने घेर थयो हतो. पूज्यश्रीनी माता थवानु सौभाग्य प्राप्त करनारनु नाम जमनाबेन हतु तेओश्रीना एक वडील बंधु पण हता तेमनु नाम मणीलालभाइ हतु पूज्यश्रीना लग्न माणेकबेन साथे थया हता दाम्पत्य जीवनना फल स्वरूप एक पुत्र पण हतो.
पूज्यश्री पोतानी १६ वर्ष ४ मास ५ दिवसनी उमरे सं १९४७मां
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लिंबडी मुकामे दीक्षित थया तेमनी वडी दीक्षा उपस्थापना मारा पू० गुरुदेवश्रीना जणाव्या प्रमाणे (मुनिराजश्री कमलविजयजीनी पन्यास पदवीना दिवसे थइ हती ते अनुसार उपस्थापनानो दिवस १९४७ आषाढ सुदी ७ छे. बीजे वर्षे गुरुदेव कालधर्म पाम्या गुरुदेवना आदर्या अधूरा रहेला कार्यो पूरा करवानी जवाबदारी आवी, बीजी भणवानी पण, तैयार थवानी शासनना पवित्र ऋणने अदा करवानी आवी अनेक जवाबदारीओ विरहथी आवी. परन्तु गुरुना एकमात्र शिष्य होवा छता 'एके हजारानी' उक्ति ने सार्थक करवा पोतानी उपर आवेली ए जवाबदारीओने पूर्ण करवा कटिबद्ध बन्या स्वयं तैयार थवानी साथोसाथ शासन, आगम अने आपणा पूर्वजोनी महान् भव्य उज्वल परंपराओनी पण रक्षा करीने तेने आगल वधारवानी तैयारी करवा लाग्या.
सं. १९५२ : इतिहासनी कलम आगल वधे छे दीक्षित अवस्थाने छ8 वर्ष चाली रा छे गुरुना वियोगने चार वर्ष थवा आव्या छे पेटलादना संघनी भावभरी विनंति स्वीकारी त्यां चातुर्मास पधार्या दीक्षित पितानी तबीयत अस्वस्थ बने छे गंभीर बने छे एक दिवसनी उषा एवी प्रगटे छे. पुत्रना हस्ते अंतिम आराधना स्वीकारी पिता स्वर्गे सिधावे छे आ आघातने पण शरीरनी नश्वरता जाणी पचावी जाय छे अने ते वखते चाली रहेला सांवत्सरिक पर्वनी आराधना क्यारे करवी ? विवादमा प्रथम तिथिनी स्थापना पछी आराधना (१) पर्वतिथिनो क्षय न थइ शके (२) अने एक दिवस माटे वषो जुना संघ मान्य पंचांग छोडी बीजु पंचांग मान्य करवु वली पार्छ असल पंचांग मान्य करवु आ वात नैतिक भूमिका उपर पण व्याजबी नथी (३) पोतानी विचक्षण बुद्धिप्रभाथी
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शास्त्र अने उज्वल परंपराओनो अभ्यास करी तेना सारभूत आ त्रण मार्गदर्शक सिद्धांतोने स्पष्टपणे स्वीकारी ते वर्ष ना पंचांगमा भादरवा सुद पांचमनो क्षय हतो तेने बदले भादरवा सुद त्रीजनो क्षय करवानु योग्यमानी पेटलादमा संघ साथे शास्त्रने परंपरानुसारे सांवत्सरिक पर्वनी यथार्थ आराधना करी त्यारबाद विश्वमा केटलुय परिवर्तन आवी गयु छे सामाजिक राजकीय परिस्थिति पण महद् अंशे बदलाइ गइ छे आजकाल करता ६७ वर्ष जेटलो समय पसार थइ गयो छे परन्तु ए १९५२ ना सिद्धांतो आजे पण मार्गदर्शक तरीके अणनम खडा छे अने लगभग स्वीकृत पणे समग्र शासनमां ते स्वीकार्य बन्या छे. जेओ वर्षों सुधी आ सिद्धांतोनी सामे विविध निंदनीय पद्धतिओ द्वारा पोताना अहं ने पोषवा खातर शासननी अस्मिताने झांखी पाडवा लाग्या तेओ पण छेल्ला लगभग ९ थी १० वर्ष थी शांति अपवाद रूपे विगेरे शब्दोनी सजावट नीचे सांवत्सरिक सिवाय अन्य तिथिओ बाबतमा शासनना आ सत्य सिद्धांतोन स्वीकार्या छे.
___सं. १९५२ ना आ बनावे पूज्यश्रीने अमरता बक्षी दीधी, तेजस्वितानी आभा पूर्णरूपे हिंदमां खीली उठी लोक हृदयमा आदर सन्माननी भावना प्रगटी उठी.
गौरवपूर्ण अंत : महानतानी अनेरी झलक तेओश्रीना जीवनमा प्रसरी चूकी. सात आगम वाचनाओ आगमोनु मुद्रीकरण आगमोने शीलोकीर्ण करी, ताम्रपत्रमा कोतरावी पालीताणा सुरतमा भव्य आगममंदिरो बंधावी प्रान्त अवस्थामा स्व आराधना माटे आराधनामार्ग नामना संस्कृतग्रथनी रचना करी छेल्ला १५ दिवस अर्धपद्मासने अनशननी जेम
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ध्यानमा रही प्राचीनकालीन अनशन परंपरानी आगली प्रतिभाने चमकावी सं. २००६ ना वैशाख वद-६ नमता पहोरे ४-३२ मीनीटे पोताना अनन्य पट्टधर गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म० विगेरे चतुर्विध संघनी विशाल हाजरीमा नमस्कार महामंत्रनु श्रवण करता नश्वरदेहनो त्याग कयो:
अमर याद : नश्वरदेहना त्यागनी साथे एक भव्य जीवनयात्रा समाप्त थइ विश्वनी बाह्य चर्मचक्षुथी एक महान विभूति अदृश्य थइ गइ सात आगमवाचनाओ स्मृत्यवशेष थयेल माथुरी-वाल्लभी वाचनाओनी पुनर्यादरूपी सरस्वती, भव्य बे आगममंदिरोमा अधि कल्पनासृष्टाउपदेश द्वारा, प्रणेता द्वारा प्रवचनान्धकार दिवाकर श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण आगमोने पत्रारूढ कराव्या ते १००० करता वधु प्राचीन स्मृतिना पुनरावर्तन रूप गंगा, अने अनशननी जेम समाधिपूर्वक अर्ध पद्मासन मुद्रामा जीवनना छेल्ला श्वासनी पूर्णाहुति करवा द्वारा प्राचीनकालीन भव्यतम अनशनप्रथाने पुनर्जीवित करवा रूप यमुना, आ त्रण अमर कार्यरूप गंगा, जमना, सरस्वतीना संगमस्थान प्रयागतीर्थ रूप तेओश्रीना जीवननी यशोगाथा गाता तेओश्रीना महान् कायोनी पूनीत याद.
अन्त : पू. आगमोद्धारकश्रीना प्रत्यक्ष दर्शन वन्दनना लाभथी पण वंचित एवो अज्ञानी हु तेओश्रीना अर्थ गंभीर घुस्तकोंनी प्रस्तावना केवी रीते लखी शकवानी क्षमता धरावी शकु ? छतां आ एक ते पूज्यश्रीना
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अज्ञात आशीर्वाद अने मारा गुरुदेवश्रीनी परम वात्सल्यपूर्ण कृपाथी क्षुल्लक प्रयास कर्यो छे छतो आमां कंइ पण क्षति होय तो ते सुधारीने विशाल हृदयपूर्वक क्षमा बक्षवा कृपा करशो एज आशा साथे विराम पामुं छु ।
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परमकृपालु प्रशान्तमूर्ति गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वर शिष्याणु मुनि पुण्योदयसागर.
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शुद्धिपत्रकपृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम्
शुखम् ६ २१ अशुभ, सुस्वर अशुभ, सुभग अने दुर्भग,
सुस्पर ९ ६ मनोयोग, वैक्रिय. मनोयोग, एम चार बचन
योग तथा औदारिककाययोग, औदारिकमिभकाय
योग, वैक्रिय. ३ आठ पांच माठ छ पांच १४ १७ विभङ्ग १५ ११ चत्वारि चत्वारि २ असंझि
असंक्षि १३ जने
अने १८ होय
होय १७ ५ ६३
६२ १८ ३ स्व १९ ९ नैर
३ पंचेंद्रिय, पंचेंद्रियजाति, १९ षश्च० द्वयेकाक्षाः) पञ्च० द्वथेकाक्षाः) ८ डल स्या
ऽसङ्ख्या २५ ९ संयभी
संयमी
नर
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पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम्
शुद्धम २८ २ बंधाय बंधाय १७ अनंतचतुष्क अनंतकषायचतुष्क
दुःस्वर ३३ ४ नपुंश्चतुष्कं नपुचतुष्कं ३३ २० होब
होय ३८ ११ पूीको
१८ काऽन्त्येभडिको भद्विको १८ द्विकोऽन्त्यो द्विकाऽन्त्यो ७ सम्यक्त्वमो., मो., सम्यक्त्वमो०, ६ मध्रवम् । मध्रुवम् (सत्) । १७ (शेषांः) (शेषाः ) ५ निजराः निर्जराः
पूर्वीको
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णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमोद्धारकाऽऽचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरप्रणीतं
कर्मार्थसूत्रम्
नत्वा नम्रसुराधीशं कर्मक्षयविधिप्रदम् । सूत्रैस्तदुक्तः कर्मार्थो वर्ण्यते तद्रुचिस्मृतः ॥ १ ॥
नमी रह्या छे सुराधीशो-इंद्रो जेने, तेमज कर्मक्षयनी विधि-क्रियाने बतावनार, एवा ( जिनेश्वरदेव ) ने नमस्कार करीने तेमणे प्ररूपेल कर्मपदार्थ सूत्रो द्वारा वर्णवाय छे। हवे कर्मना मूलभेदोने जणावे छे१. ज्ञानदृष्ट्यावरणवेदमोहाऽऽयुर्नामगोत्राऽन्तराया
मूल
प्रकृतयः ।
आत्माना शुद्ध स्वरूपने आच्छादित करनार एकप्रकार पुद्गल ते कर्म छे. तेना आठ प्रकार छे- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेद-वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अने अंतराय ।
तेमां ज्ञान एटले विशेषबोध तेने आवरे ते ज्ञानावरण, दर्शन एटले सामान्यबोध तेने आवरे ते दर्शनावरण, सुख-दुःखनो अनुभव करावे ते वेदनीय, स्त्रीपुत्रादिकमां ममत्व करावे ते मोहनीय, जीवने परभवमां जतां अटकावे ते आयुष्य, गति-जाति-शरीर आदिने करे ते नामकर्म,
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जेथी उंच-नीचपणे बोलावाय ते गोत्रकर्म, दान-लाभ आदिमां विघ्न करे ते अंतगय ।
हवे उत्तरप्रकृतिनी भेदसंख्या कहे छे२. उत्तरा यथासङ्ख्यम् ।
( पश्चनवयष्टाविंशतिचतुस्युत्तरशतद्विपञ्चमेदाः )
आठ मूलप्रकृतिओनी उत्तरप्रकतिमो अनुक्रमे पांच, नव, बे, अट्ठावीश, चार, एकसोने त्रण, बे अने पांच भेदो छ ।
हवे ज्ञानावरणीयकर्मना मेद वर्णवे छे३. मति-श्रुताऽवधि-मनःपर्याय-केवलानाम् ।
मतिज्ञान, भुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान अने केवलज्ञान ए पांच ज्ञानोना आवरण एटले मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्याय ज्ञानावरण अने केवलज्ञानावरण ए पांच शानावरणीयकर्मना भेदो छे.
हवे दर्शनावरणीयकर्मना मेद जणावे छे४. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला
प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धि-वेदनीयानि च ।
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शन ए चार दर्शनोना आवरण एटले चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्श नावरण, अवधिदर्शनावरण अने केवलदर्शनावरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला अने स्त्यानद्धि ए नव दर्शनावरणीयकर्मना भेदो छे
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हवे वेदनीयकर्मना भेद प्ररूपे छे५. सदसवेद्य । ___सातावेदनीर अने मसाताबेदनीय ए बे वेदनीयकर्मना मेदो छे.
हवे मोहनीयकर्म ना भेद निरूपे छे६. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयानि दर्शनमोहनीयम् ।
कषाया-अनन्ताऽप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण-सज्वलनाख्याः प्रत्येकं क्रोध-मान-माया-लोभाः, नोकषाया-हास्य-रत्य-रति-शोक-भय-जुगुप्साः स्त्रीपुंनपुंसकवेदाः चारित्रमोहनीयम् ।।
सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय अने तदुभयमिश्रमोहनीय ए त्रण दर्शनमोहनीय छे. ए साची श्रद्धाने अटकावे छे.
अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभ. ए सोल कषाय छे. तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय अने दुगुंछाजुगुप्सा तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद ए नव नोकषाय छे.
एवं पच्चीस चारित्रमोहनीयकर्मना भेदो छे. ए सद्वर्तनने अटकावे छे.
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एवं मोहनीयकर्मना अट्ठावीस भेदो छे.
हवे आयुष्य कर्मना भेद बतावे छे८. नारक-तैर्यग्योन-मानुष-दैवानि । (आयूंषि)
नारकायुष्य, तिर्यंचायुष्य, मनुष्यायुष्य अने देवायुष्य ए चार आयुष्यकर्मना भेदो छे.
हवे नामकर्मना भेदो प्ररूपे छे९. नर-नरक-देव-तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यः । १०. एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रिया जातयः । ११. औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारक-तैजस कार्मणानि
शरीर-सङ्घातनानि । १२. आदित्र्युपाङ्गानि । १३. स्वयुक्-तैजस-कार्मणयुक्-त्रिपरस्परबन्धनानि । १४. वज्रर्षभनाराच-र्षभनाराच - नाराचा- ऽर्धनाराच
कीलिका-सेवार्तसंहननानि । १५. समचतुरस्र-न्यग्रोध-सादि-कुब्ज - वामन - हुण्डानि
संस्थानानि । १६. कृष्ण-नील-रक्त-हरिद्र-सिता वर्णाः । १७, सुरभ्य-सुरभी गन्धौ । १८. तिक्त-कटु-कषाया-ऽम्ल-मधुरा रसाः ।
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१९. गुरु-लघु - मृदु - खर-शीतो-ष्ण-स्निग्ध-रूक्षाः
स्पर्शाः । २०. शुभा-ऽशुभौ खगमौ । २१. अगुरुलघू-पघात-पराघातो-च्छ्वासा-ऽऽतपोद्योत -
जिन-निर्माणानि प्रत्येकाः प्रकृतयः ।। २२. त्रस-बादर-पर्याप्त प्रत्येक-स्थिर- शुभ - सुभग -
सुस्वरा-ऽऽदेय-यशःसेतरे त्रसस्थावरदशके । गति-मरगति, नारकगति, देवगति अने तिर्यंचगति तथा आनुपूर्षी-नरानुपूर्वी, नारकानुपूर्वी, देवानुपूर्वी अने
तिर्यंचानुपूर्वी । जाति-एकेन्द्रियजाति, बेइन्द्रियजाति, तेइन्द्रियजाति,
चउरिन्द्रियजाति अने पंचेंद्रियजाति । शरीर-औदारिकशरीर, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर,
तैजसशरीर अने कार्मणशरीर. तथा संघातन-औदारिकसंघातन, वैक्रियसंघातन, आहारक
संघातन, तैजससंघातन अने कार्मणसंघातन । उपांग-पहेला त्रण शरीरना उपांगो अर्थात् औदारिको
पांग, वैक्रियोपांग अने आहारकोपांग । बंधन-औदारिकऔदारिकबंधन, औदरिकतैजसबंधन, औदा
रिककामणबंधन अने औदारिकतैजसकार्मणबंधन, नथा बैक्रियवैक्रियबंधन, वैक्रियतैजसबंधन, वैकियकार्मणबंधन. अने वैक्रियतैजसकार्मणबंधन; तथा
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૬
आहारक आहारक बंधन, आहारकतै जसबंधन, आहारककार्मणबंधन, अने आहारकतैजस कार्मणबंधन; तथा तैजसतैजसबंधन, कार्मणकार्मणबंधन अने तैजसकार्मणबंधन ।
संघयण - वज्रऋषभनारा वसंहनन,
ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलिका संहनन अने सेवात्तसंहनन ।
संस्थान - समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोधसंस्थान, सादिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामन संस्थान भने हुंडकसंस्थान । वर्ण-कालो, लीलो, लाल, पीलो अने सफेद वर्ण ।
गंध-सुरभिगंध अने दुरभिगंध ।
रस-तीखो, कडवो, तुरो, खाटो अने मधुर रस । स्पर्श-भारे, हलको, कोमल, कठोर, शीत, उष्ण, चीकणो अने रूक्ष स्पर्श 1
विहायोगति - शुभ अने अशुभ खगम - विहायोगती । प्रत्येक प्रकृति- अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्रवास, आतप, उद्योत, जिननाम अने निर्माण ए प्रत्येक प्रकृतिओ ।
इतर - प्रतिपक्षसहित अर्थात् - त्रस अने स्थावर, बादर अ सूक्ष्म, पर्याप्त अने अपर्याप्त, प्रत्येक अने साधारण, स्थिर अने अस्थिर, शुभ अने अशुभ, सुखर अने दुःस्वर, आदेय भने अनादेय, यश अने अपयश ए त्रसदशक अने स्थावरदशक |
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आ प्रमाणे नामकर्मना १०३ भेदो छे.
हवे गोत्रकर्मना भेद देखा छे
२३. उच्चैनी चैर्गोत्रे ।
उच्च अने नीच ए बे गोत्रकर्मना भेद छे. हवे अंतरायकर्मना मेद बतावे छे२४. दान - लाभ - भोगोपभोग - वीर्याणाम् (अन्तरायाः) ।
दान, लाभ, भोग, उपभोग अने वीर्य ए पांचना अंतरायो पटले दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय अने वीर्यांतराय ए पांच अंतरायकर्मना मेदो छे. आ कर्म दानदेवामां लाभ-भोग आदिमां विघ्न करे छे !
आ बघी कर्मप्रकृतिओनुं स्वरूप कर्मग्रंथनी टीकाथी जाणवु ।
हवे १४ गुणस्थानको कहे छे
२५. मिथ्यात्व - सास्वादन - मिश्रा - ऽविरत - देशविरत-प्रमत्ताऽप्रमत्तसंयत - निवृत्य - निवृत्तिवादर - सूक्ष्मसम्परायोपशान्त - क्षीणमोह - सयोग्य - योगिजिना गुणाः ।
1
मिथ्यात्व सास्वादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंवत, निवृत्तिबादरसंपराय, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली (जिन) अने अयोगीकेवली ए चउद गुणस्थान छे ।
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हवे १४ जीवस्थानो जणावे छे२६. एकेन्द्रियसूक्ष्मबादर-पञ्चेन्द्रियसञ्झ्यसज्ञि-द्वि-त्रि
चतुरिन्द्रियाः पर्याप्ताऽपर्याप्ता जीवाः ।
सूक्ष्मएकेंद्रिय,बादरएकेंद्रिय संक्षीपंचेंद्रिय, असंज्ञीपचेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चरिंद्रिय ए सात प्रकारना जीवो पर्याप्ता अने अपर्याप्ता एम चउद जीवना स्थानको-भेदो छ ।
हवे जीवस्थानोमा गुणस्थानको कहे छे२७. अपर्याप्ते बादरासज्ञि-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिये प्रथम
द्वितीये ।
अपर्याप्त बादर एकेंद्रिय, अपर्याप्त असंही पंचेंद्रिय, अपर्याप्त बेइंद्रिय, तेई द्रय अने चउरिंद्रिय जीवने विषे पहेलु अने बीजु गुणस्थान होय छ । २८. सङ्ग्यपर्याप्ते साऽयते ।
अपर्याप्त संझीपंचेंद्रियने विषे अयत-अविरतसहित एटले पहेलु बीजु अने चोथु एमत्रण गुणस्थान होय छ । २९. सज्ञिपर्याप्ते समानि ।
संज्ञी-पर्याप्तने विषे सर्व गुणस्थानक होय छे । ३०. शेषेषु मिथ्यात्वम् ।
शेष-सूक्ष्म अपर्याप्ता, सूक्ष्म पर्याप्ता, पर्याप्त बादर एकेद्रिय, पर्याप्त बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रिय अने पर्याप्त असंहिंपचेंद्रिय ए सातने विषे एक ज मिथ्यात्व-गुणस्थानक होय छे ।
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हवे योगना भेद कहे छे३१. सत्याऽसत्यमिश्रव्यवहारमनोवचनौदारिकवैक्रियाऽऽ -
हारक-तन्मिश्रकार्मणानि योगाः ।
मन, वचन अने कायानी क्रिया तेने योग कहें छे, तेना १५ भेदो छे-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, मिश्र-सत्यमृषा मनोयोग अने व्यवहार-असत्यामृषामनोयोग, वैक्रियकाययोग, वैक्रिय मिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग अने कार्मणकाययोग ।
__ हवे जीयस्थानकोमा योग कहे छे३२. अपर्याप्तषटके कार्मणौदारिकमिश्रौ । ___संज्ञि पंचेंद्रिय अपर्याप्त सिवाय बाकीना-सूक्ष्मएकेंद्रिय, बादर एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिद्रिय अने असंज्ञिपंचेंद्रिय ए छ अपर्याप्ताने विषे कार्मण अने औदारिकमिश्र ए बे काययोग होय छे। ३३. अपर्याप्तसज्ञिनः सवैक्रियमिश्री ।
संज्ञिअपर्याप्ताने विषे पूर्वोक्त बे योग वैक्रियमिश्र सहित एम त्रण योग होय छे । ३४. सज्ञिपर्याप्ते सर्वे (योगाः)।
संज्ञिपर्याप्तामा बधा योग होय छे। ३५. सूक्ष्म औदारिकः । ३६. चतुर्यु सान्त्यभाषः । ३७. बादरे सवैक्रियतन्मिश्रः । . .
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१०
पर्याप्त सूक्ष्म एकेंद्रियने विषे एकज औदारिककाययोग होय छ।
बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय अने असंशिपंचेंद्रिय ए चार पर्याप्ताने विषे अंत्य-चोथी भाषा सहित औदारिक एटले बे योग होय छ।
बादर एकेंद्रिय पर्याप्ताने विषे वैक्रिय अने वैकियमिश्र सहित औदारिक योग होय एटले औदारिक, वैक्रिय अने वैक्रियमिश्र एम प्रण योग होय छे ।
। योगाधिकार समाप्त ।
हवे उपयोगना भेद कहे छे३८. ज्ञानाऽज्ञानदर्शनानि पञ्च-त्रि-चतुर्थोपयोगाः ।
जीवनो बोधरूप व्यापार तेने उपयोग कहे छे, तेना बार भेद छे
पांच ज्ञान-मतिक्षान, श्रुतज्ञाम, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञान.
त्रण अज्ञान-मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान अने घिभंगशान. अमे
चार दर्शन-चक्षुदर्शन, अवक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शन.
हवे जीवस्थानोमां उपयोग कहे - ३९. पर्याप्तसज्ञिनि द्वादश ।
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पर्याप्ता संझिने विषे बार उपयोग होय छे । ४०. पर्याप्तचतुरिन्द्रियाऽसझिन्यज्ञानदर्शनद्वयम् । ___ पर्याप्ता चरिंद्रिय अने पर्याप्ता असंशि पंचेंद्रियमां बे अज्ञान अने बे दर्शन एम चार उपयोग होय छे । ४१. दशस्वचक्षुष्कम् ।
पर्याप्त अने अपर्याप्ता सूक्ष्म एकेंद्रिय, बादर पकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, अपर्याप्त चरिंद्रिय अने असंज्ञिपंचेंद्रिय ए दसने विषे चक्षुदर्शन विना एटले अवक्षुदर्शन, मति प्रज्ञान अने श्रुतअज्ञान ए त्रण उपयोग होय छे ।। ४२. अमनश्चक्षुःकेवलज्ञान-दर्शनान्यपर्याप्ते सज्ञिनि ।
संज्ञि अपर्याप्ताने विषे मनःपर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन, केवलज्ञान अने केवल दर्शन ए चार विना बाकीना आठ उपयोग होय छे।
। उपयोगाधिकार समाप्त ।
हवे लेश्याना भेद कहे छे४३. कृष्ण-नील-कापोत-तेजः पद्म-शुक्ला लेश्याः ।
कषायोदयरंजित योगपरिणामने लेश्या कहे छे. तेना छ मेद छेकृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पन अने शुक्ल ।
हवे जीवस्थानोमा लेश्या कहे छे
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४४. सज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्ते षड् । ___संज्ञि पर्याप्ता अने अपर्याप्ता ए बेने विषे छ लेश्या होय । ४५. बादराऽपर्याप्ते प्रथमाश्चतस्रः ।
अपर्याप्त बादर एकेंद्रियने विषे पहेली चार लेश्या होय । ४६. शेषेषु तिस्रः ।
पर्याप्त अने अपर्याप्त संज्ञिपंचेंद्रिय अने अपर्याप्त बादर एकेंद्रिय वर्जीने शेष-अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय, असंज्ञिपंचेंद्रिय अने बादरपर्याप्त एकेंद्रिय ए अगीयार जीस्थानमां कृष्ण, नील अने कापोत ए त्रण लेश्या होय छे ।
। लेश्याधिकार समाप्त ।
हवे १४ जीवस्थानमां मूल प्रकृतिना बंध, उदय, उदीरणा अने सत्ता कहे छे४७. सप्ताष्ट बन्धोदीरणे सत्ताउदयेऽष्टौ शेषेषु
(त्रयोदशसु)।
संज्ञि पर्याप्तने वर्जीने तेर जीवस्थानमां सात अथवा आठ कर्मनो बंध, तथा सात अथवा आठ कर्मनी उदीरणा होय, तथा सत्ता अने उदयमां आठेय कर्म होय छे। ४८. सप्ताष्टषडेकबन्धोऽष्टसप्तचतुरुदयसत्तः सप्ताष्टषट्
पञ्चद्वयोदीरणः सज्ञिपर्याप्तः।
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13
संज्ञि पर्याप्तामा सात, आठ, छ अने एक कर्मनो बंध होय, तथा सत्ता अने उदय, सात आठ अने चार कर्मनो होय, तथा उदीरणा, सात आठ पांच अने बे कर्मनी होय छे ।
हवे मार्गणास्थानो कहे छे४९. गति-जाति-काय-योग-वेद-कषाय-ज्ञान - संयम
दर्शन-लेश्या-भव्य-सम्यक्त्व-सञ्ज्याऽऽ-हारमार्गणाश्चतुः-पञ्च-षट्-त्रि-त्रि-चतुरष्ट-सप्त-चतुः-षड् द्वि-षड्-द्वि-द्वि भेदाः।
गति, जाति, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञि अने आहार मार्गणाना अनुक्रमे चार, पांच, छ, त्रण, त्रण, चार, आठ, सात, चार, छ, बे, छ, ये अने बे भेद छे. ते आ प्रमाणे
गति-४-देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति अने नरकगति । जाति-५-एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय अने
पंचेंद्रियजाति । काय--पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वन
स्पतिकाय अने त्रसकाय । योग-३-मनोयोग, वचन योग अने काययोग । वेद-३-पुरुषवेद, स्त्रीवेद अने नपुंसकवेद । कषाय-४-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय अने
लोभकषाय ।
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१४
ज्ञान-८-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिशान, मनःपर्यवज्ञान,
केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान अने विभंग
ज्ञान । संयम-७-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि,
सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात, देशविरति अने
अविरति । दर्शन-४-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने
केवलदर्शन । लेश्या-६-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजो
लेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ललेश्या । भव्य-२-भव्य अने अभव्य । सम्यक्त्व-६-औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, सास्वा
दन, मिश्र अने मिथ्यात्व । संज्ञि-२-संज्ञी अने असंज्ञी । आहार-२-आहार अने अणाहार ।
__ हवे मार्गणाने विष जीवस्थान कहे छे५०. सुरनरकविभङ्गमति श्रुतावधिज्ञानदर्शनक्षायिकौपशमि
कक्षायोपशमिकसज्ञिपद्मशुक्लासु पर्याप्ताऽपर्याप्तसज्ञिनौ ।
देवगति, नरकगति, विभंगज्ञान, मतिज्ञान, भुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन; क्षायिक, औपशमिक अने क्षायोपशमिकसम्यक्त्व, संज्ञि, पद्मलेश्या भने शुक्ललेश्या ए तेर
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૧૫
मार्गणाने विषे पर्याप्तहिपंचेंद्रिय भने अपर्याप्तशिपंचेंद्रिय ए बे जीवना मेद होय छे। ५१. नरे सासयपर्याप्तौ । ___ मनुष्यगतिमार्गणाम असंही अपर्याप्त सहित ते (बे) एटले पंचेंद्रिय संक्षि पर्याप्तो भने अपर्याप्तो तथा असंशिअपर्याप्तो एम प्रण जीवना मेद होय छे । ५२. तेजस्यां सवादरापर्याप्तौ ।
तेजोलेश्वामा बादरएकेंद्रिय अपर्याप्तसहित ते (बे) एटले संक्षि पर्याप्तो अने अपर्याप्तो तथा बादर एकेंद्रिय अपर्याप्त ए त्रण जीवना मेद होव छ। ५३. स्थावरे एकेन्द्रिये प्रथमानि चत्वारि ।
(पांच) स्थावरकायमा भने एकेंद्रियजातिमा पहेला चार जीवस्थान होय. ते आ-सूक्ष्मपर्याप्तो अने अपर्याप्तो तथा बादर पर्याप्तो अने अपर्याप्तो। ५४. असज्ञिनि प्रथमानि द्वादश ।
असनिमा पहेला बार (संज्ञि पर्याप्तो अने अपर्याप्तो ए चे वर्जी) जीवस्थान होय । ५५. विकले द्वे द्वे ।
विकलेंद्रिय-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चरिंद्रियमां बे बे जीवस्थान ते भा-पर्याप्तो अने अपर्याप्तो। ५६. त्रसे अन्त्यानि दश।
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૧૬
सकायम छेल्ला दस जीवस्थान होय ते आ-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय, असंझिपचेंद्रिय अने संशिपंचेंद्रिय ए पांच पर्याप्ता अने अपर्याप्ता एम दस ।
५७. अयताऽऽहार तिर्यक्तनु कषायाऽज्ञानद्वय प्रथमलेश्यात्रिकभव्याऽभव्याऽचक्षुः नपुंसकमिथ्यात्वे सर्वाणि ।
अयत - अविरति आहारी, तिर्यंचगति, काययोगी, ४ कषायी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, प्रथमलेश्यात्रिक-कृष्ण, नील अने कापोत, भव्य, अभव्य, अचक्षुदर्शनी, नपुंसकवेदी, अने मिथ्यात्वी एमां बधा जीवस्थानो होय |
५८. केवलज्ञानदर्शनसं यमपञ्चकमनोज्ञानदेश मनो मिश्र
संज्ञिपर्याप्तः ।
,
केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, संयमपश्चक-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय अने यथाख्यातसंयमी - चारित्री, मनःपर्यवज्ञानी, देशविरति मनोयोगी, अने मिश्रसम्यक्त्री एमां संज्ञिपर्याप्त जीवस्थान होय ।
५९. वचने ऽन्त्यपर्याप्तपञ्चकम् ।
वचनयोगीमां छल्ला पांच पर्याप्ता ते पर्याप्त बेइंद्रिय, पर्याप्त इंद्रिय, पर्याप्त चउरिंद्रिय तथा पर्याप्त संज्ञी अने असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवस्थान होय ।
६० चक्षुषि त्रिकम् ।
चक्षुदर्शनीने विषे छेल्ला त्रण- चउरिंद्रिय, संज्ञी पंचेंद्रिय अने असंशी पंचेंद्रिय जीवस्थान होय |
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૧૭
६१. स्त्रीनरपश्चाक्षे चत्वारोऽन्त्याः ।
स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अने पंचेंद्रिय ए त्रणने विषे छेल्ला असंज्ञी पंचेंद्रिय अने संज्ञी पंचेंद्रिय ए बे अपर्याप्ता अने पर्याप्ता एम चार जीवस्थान होय । ६३. अनाहारेऽपर्याप्तषट्कं ससद्वयम् ।
अनाहारीने विषे बे संज्ञीसहित छ अपर्याप्ता एटले संज्ञी अपर्याप्तो अने पर्याप्तो, सूक्ष्म एकेंद्रिय, बादर एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय अने असंशी पंचेंद्रिय ए छ अपर्याप्ता एम आठ जीवस्थान होय ।
६३. असूक्ष्मापर्याप्तं सास्वादने ।
सास्वादन समकितीमां सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्ता विना पूर्वोक्त सात भेद होय ।
हवे मार्गणास्थानोमां गुणस्थान कहे छे६४. तिरश्चि सुरनारके नरसज्ञिपञ्चेन्द्रियभव्यत्रसे एकविकलभूदकवृक्षे तेजोवाय्वभव्ये वेदत्रिकषाये लोभेsयतेऽज्ञानत्रिके चक्षुरचक्षुषोर्यथाख्याते मनोज्ञाने सामायिकच्छेदे परिहारे केवलद्विके मतिश्रुतावधिद्विक औपशमिके वेदके क्षायिके मिथ्यात्वत्रिके देशसूक्ष्मसम्पराये योगाहारशुक्ललेश्यास्वसञ्ज्ञित्रिद्विलेश्यानाहारे
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१८
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पञ्च- चतुः - सर्व- द्वये - क- नव- दश- चतु - त्रिद्वादशा- न्त्यचतु- र्यतादिसप्त - चतु - द्वन्त्यद्वायता दिनवा - ट - चतु - रेकादशाऽऽद्य - त्रि-स्व-स्वत्रयोदश-द्वि-षट् - सप्त - प्रथमान्त्ययुग्म - युगयत इति गुणाः ।
मान
तिर्यंचगतिमां प्रथमना पांच गुणस्थान. देवगति अने नरकगतिमां प्रथमना चार गुणस्थान. मनुष्यगति, संज्ञिपंचेंद्रिय, भव्य अने त्रसकायमां बधा गुणस्थान. एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, पृथ्वीकाय, अपूकाय अने बनस्पतिकायमां प्रथमना बे गुणस्थान. तेउकाय, वायुकाय अने अभव्यमां प्रथमनुं एक गुणस्थान. त्रणवेद - स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसक वेद, क्रोध, अने मायामां प्रथमना नव. लोभमां दश. अयत-अविरतमां प्रथमना चार मति अज्ञान, भुत अज्ञान अने विभंगज्ञानमां प्रथमना त्रण. चक्षुदर्शन अने अचक्षुदर्शनमां प्रथमना बार गुणस्थान. यथाख्यातचारित्रमां ल्हां चार गुणस्थान. मन -: पर्यायज्ञानमां प्रमत्त आदि सात गुणस्थान. सामायिक अने छेदोपस्थापनीयचारित्रमां प्रमत्तआदि चार परिहारविशुद्धिचारित्रमां प्रमत्तआदि थे. केवलज्ञान अने केवलदर्शनमां छेल्लां बे गुणस्थान. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने अवधिदर्शमां अविरतसम्यग्दृष्टि आदि नव. औपशमिकसम्यक्त्वमां अविरत सम्यग्दष्टि आदि आठ. वेदक-क्षयोशम - सम्यक्त्वमां अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार, क्षायिकसम्यक्त्वमां अविरतसम्यग्दृष्टि आदि अगियार. मिथ्यात्वत्रिक - मिथ्यात्व, साम्बादन
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૧૯
अने मिश्रदृष्टिमां अनुक्रमे पहेलुं बीजु अने त्रीजु गुणस्थान. देशविरतमां पांच सूक्ष्मसंपरायचारित्रमां दशमं गुणस्थान. मनोयोग, वचनयोग, काययोग, आहारमार्गणा अने शुक्ललेश्यामां प्रथमना तेर गुणस्थान. असंज्ञिमां प्रथमनां बे. कृष्ण, नील अने कापोत लेश्यामां प्रथमना छ. पद्म अने शुक्ललेश्यामां प्रथमना सात. अनाहारमां प्रथमना बे, छेल्लां बे सहित अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानक होय छे.
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हवे मार्गणास्थानोमां योग कहे छे
६५. अनाहारे, नरगति - पञ्चेन्द्रिय- त्रस - काया - ऽचक्षु-र्नरनपुंसक - कषाय - क्षायिक - क्षायोपशमिकसम्यक्त्वसञ्ज्ञि - लेश्याषट्काऽऽहार - भव्य -मति - श्रुताऽ-वधि - द्विके, तिर्यगयत स्त्री - सास्वादन - त्र्यज्ञानोपशमाऽभव्य - मिथ्यात्वे सुरनरके स्थावर एकाक्षे पवनेसञ्ज्ञिनि विकले मनो- वचः - सामायिक-च्छेदचक्षु - मनोज्ञाने केवल द्विके परिहार - सूक्ष्मे मिश्र देशे यथाख्याते
कार्मण - सर्वा - ssहारकद्विकोनौ-दारिकद्विकोन - कार्मणौदारिकद्विक - सवैक्रियद्विका - ऽन्त्यवाग्युग् - वैक्रियद्विकोना - Sकार्मणौदारिक मिश्र - साद्याऽन्त्यमनोवागौदा
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रिककार्मण - समनोवचश्चतुष्कौदारिक - सवैक्रिय
सवैक्रियद्विक-सकामणौदारिकमिश्रा योगाः । अनाहारमार्गणामां कार्मणकाययोग मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, त्रसकाय, काययोग, अचक्षुदर्शन, पुरुषवेद,नपुंसकवेद,क्रोध,मान, माया, लोभ, क्षायिकसमकिती, क्षायोपशमिकसमकिती संज्ञी,छ लेश्या,आहारक,भव्य,मतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने अवधिदर्शन मार्गणाओमां पंदर योग. तिर्यचगति, स्त्रीवेद, अविरत, सास्वादनसम्यक्त्व, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान, उपशमसम्यक्त्व, अभव्य अने मिथ्यात्वमा आहारकद्विक-आहारक अने आहारकमिश्रविना तेर योग. देवगति अने नरकगतिमां ए तेर औदारिकद्विक-औदारिक अने औदारिकमिश्रविना अगियार योग. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय अने वनस्पतिकायमां कार्मण अने औदारिकद्विक एम त्रण योग. एकेंद्रिय अने वायुकायमा पूर्वोक्त त्रण अने वैक्रिय द्विक एम पांच योग. असं शिमां ते पाँच असत्यामृषारूप अंत्यवचनयोग सहित छ योग. बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिद्रियमां ते छ वैक्रियद्विकरहित चार योग. मनोयोग, वचनयोग, सामायिक, छेदोपस्थापनीय चारित्र, चक्षुदर्शन अने मनःपर्यायज्ञानमां कार्मण अने औदारिकमिश्ररहित बाकी तेर योग. केवलज्ञान अने केवलदर्शनमा प्रथम अने अंत्य मनोयोग अने वचनयोग सहित औदारिक अने कार्मणकाययोग एम सात योग. परिहारविशुद्धि अने सूक्ष्मसंपरायचारित्रमा मनना अने वचनना चार चार योग सहित औदारिककाययोग एम नव योग. मिश्रसमकितमां ते नव योग वैक्रियकाययोग सहित दश योग. देशविरतमां
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ते नव वैक्रियद्विक सहित अगियार योग. यथाख्यातचारित्रमा तेज नव योग, कार्मण अने औदारिकमिश्रयोगसहित अगियार योग होय.
हवे मार्गणास्थानोमा उपयोग कहे छे६६. सुरतियग्नरकायते सयोगवेदशुक्लाहारनरपञ्चेन्द्रिय
सज्ञिभव्ये चक्षुरचक्षुले श्यापश्चककषाये चतुरक्षासज्ञिनि एकद्वित्र्यक्षस्थावरे त्र्यज्ञानाभव्यमिथ्यात्वसास्वादने केवलद्विके क्षायिकयथाख्याते देशे मिश्रेऽनाहारे ज्ञानसंयमचतुष्कोपशमवेदकावधिदर्शनेऽमनः केवलद्विक-सर्वाऽकेवलद्विका - ज्ञानदर्शनद्विकाऽचक्षुस्त्र्यज्ञानदर्शनद्वय-स्वद्विका-नज्ञानत्रिक-दर्शनज्ञानत्रिकसाज्ञानाऽचक्षुर्मनोज्ञानज्ञानचतुष्कदर्शनत्रिका उपयोगाः।
देषगति, तिर्यचगति, नरकगति अने अविरतमा मनःपर्याय अने केवलद्विक-केवलज्ञान अने केवलदर्शन विना नव उपयोग. त्रसकाय, योग-मन, वचन अने काया वेद-स्त्री, पुरुष अने नपुंसक, शुक्ललेश्या, आहार, मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, संज्ञी अने भव्यमां बार उपयोग. चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, कृष्णादि पांच लेश्या अने क्रोध आदि चार कषायमां केवलद्विकविना दश उपयोग. चउरिद्रिय अने असंशिमां बे अज्ञान. मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान अने बे दर्शन-चक्षुदर्शन अने
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अचक्षुदर्शन एम चार उपयोग. एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने स्थावरमां ते चार चक्षुदर्शन रहित त्रण उपयोग. त्रण अज्ञान-मतिअज्ञाल, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान, अभव्य, मिथ्यात्व अने सास्वादनमां त्रण अज्ञान अने बे दर्शन-चक्षुदर्शन अने अचक्षुदर्शन एम पांच उपयोग. केवल द्वि कमां केवलज्ञान अने केवलदर्शन एम बे उपयोग. क्षायिक सम्यक्त्व अने यथाख्यात. चारित्रमा अज्ञानत्रिक-मति प्रज्ञाज, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान विना नव उपयोग. देशविरतमा त्रण दर्शन-चक्षु अचक्षु अने अवधिदर्शन अने त्रण ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान एम छ उपयोग. मिश्रदृष्टिमां तेज त्रण दर्शन अने त्रण ज्ञान अज्ञानसहित होय. अनाहारमा चक्षुदर्शन अने मनःपर्यायज्ञान विना दस उपयोग ज्ञान चतुष्क-म तज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, अने मनःपर्यायज्ञान, संयम चतुष्क-सामायिक चारित्र, छे दोषस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपरा य वारित्र, उप. शमसमकित, वेदक-क्षायोपरामिकसमकित अने अवधिदर्शनने विषे ज्ञानचतुष्क-मतिक्षान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने मनःपर्यायज्ञान अने दर्शनत्रिक-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन अने अवधि दर्शन एम सात उपयोग होय.
हवे मार्गणास्थानोमा ले३२॥ जगावे छे६७. एकाक्षासज्ञिभूदकवृक्षे नारकविकलानिवाते यथा
ख्यातसूक्ष्म-केवलद्विके शेषे चतुस्त्रिशुक्लषड्लेश्याः। ___ एकेंद्रिय, असंज्ञी, पृथ्वीकाय, अप्काय अने वनस्पतिकायमां प्रथम चार लेश्या. नारकी, विकलेंद्रिय, अग्निकाय अने
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वायुकायम पहेली त्रण लेश्या. यथाख्यात, सूक्ष्मसंपरायचारित्र, केवलज्ञान अने केवलदर्शनमां शुक्ललेश्या. शेष-बाकी देवगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, पंचेंद्रिय, त्रसकाय, त्रण योग, त्रण वेद, चार कपाय, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, मतिजज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभ'गज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, देशविरत, अविरत, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, भव्य, अभव्य क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक, सास्वादन, मिश्र, मिथ्यात्व, संज्ञी, आहारक अने अनाहारक ए एकतालीश मार्गणामां छ लेश्या होय छे.
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हवे मार्गणास्थानोमां पोताना स्थाननी अपेक्षाए अल्पबहुत्व प्ररूपे छे
६८. ( नर-नारक - देव - तिर्यञ्चः ) स्तोकाऽसङ्ख्यद्विकाऽनन्तगुणाः ।
मनुष्यो, नारकी देवता अने तिर्यंचोथी थोडा होय छे. तेथी नारकी असंख्यातगुण तेथी देवता असंख्यातगुणा अने तेथी तिर्यचो अनंतगुण होय छे.
हवे इंद्रियद्वारमां अल्पबहुत्व कहे छे
६९. पञ्चचतुस्त्रिद्वयेकाक्षाः ) स्तोकाधिकत्रयाऽनन्तगुणाः ।
पंचेंद्रिय थोडा, तेथी चउरिंद्रिय विशेषाधिक, तेथी बेइंद्रिय विशेषाधिक अने तेथी एकेंद्रिय अनंतगुण होय छे
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__ हवे कायद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७०. त्रसस्तोकाग्न्यसङ्ख्यपृथ्व्यब्वाय्वधिकवृक्षाऽनन्तगुणाः। ___सकाय थोडा, तेथी अग्निकाय असंख्यातगुणा, तेथी पृथ्वीकाय विशेष अधिक, तेथी अप्काय विशेष अधिक, तेथी वायुकाय विशेष अधिक अने तेथी वनस्पतिकाय अनंतगुणा होय छे.
हवे योगद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७१. (मनोवाक्काययोगवन्तः) स्तोकाऽस. ख्याऽनन्त
गुणाः । मनोयोगवाला थोडा छे, तेथी वचनयोगवाला असंख्यातगुणा अने काययोगवाला तेथी अनंतगुणा होय छे.
हवे वेदद्वारमा अल्पबहुत्व कहे छे७२. (पुंस्त्रिक्लीवाः) स्तोकसङ्ख्याऽनन्तगुणाः ।
पुरुषो थोडा. तेथी स्त्रिओ संख्यातगुण तेथी नपुंसक अनंतगुणा छे.
हवे कषायद्वारमा अल्पबहुत्व कहे छे७३. मानि-क्रोधि-मायि-लोभिनो अधिकाः (क्रमेण) ।
मानी थोडा, तेथी क्रोधी विशेष अधिक, तेथी मायी विशेष अधिक अने तेथी लोभी विशेष अधिक होय छे.
हवे शानद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७४. मनोज्ञानस्तोकाऽवध्यऽसङ्ख्यमतिश्रुतसमाधिकविभ
ङ्गाऽसङ्ख्यकेवल्यनन्तमतिश्रुताऽज्ञानसमाऽनन्तगुणाः।
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मनःपर्यायज्ञानी थोडा, तेथी अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा, तेथी मतिज्ञानी - श्रुतज्ञानी विशेष अधिक परस्पर सरखा, तेथी विभंगज्ञानी असंख्यातगुणा, तेथी केवलज्ञानी अनंतगुणा अने तेथी मतिअज्ञानी-श्रुतअज्ञानी अनंनगुणा मांहोमांहे सरखा.
हवे संयमद्वारमां अल्पबहुत्व जणावे छे
७५. सूक्ष्मस्तोक - परिहार- यथाख्यातसङ्ख्य-च्छेद- सामायिकसङ्ख्य-देशाऽसङ्ख्याऽयताऽनन्तगुणाः ।
सूक्ष्मसंपरायसंयभी थोडा, तेथी परिहारविशुद्धिवाला संख्यातगुणा तेथी यथास्यातचारित्रवाला संख्यातगुणा तेथी छेदोपस्थापनीय चारित्रवाला संख्यातगुणा, तेथी सामायिकचारित्रवाला संख्यातगुणा, तेथी देशविरत असंख्यातगुणा, तेथी अविरत अनन्तगुणा होय छे.
हवे दर्शनद्वारमां अल्पबहुत्व कहे छे
७६. अवधिस्तोक - चक्षुरसङ्खय - केवला - ऽचक्षुरनन्तगुणाः । अवधिदर्शनवाला थोडा, तेथी चक्षुदर्शनवाला असंख्यातगुणा; तेथी केवलदर्शनवाला अनंतगुणा अने तेथी अचक्षुदर्शनवाला अनंतगुणा होय छे
हवे लेश्याद्वारमां अल्पबहुत्व कहे छे
७७. उत्क्रमात् स्तोक-सङ्ख्यद्विका नन्तद्विकाधिका लेश्याः । पश्चानुपूर्णेथी लेश्या कहेवी शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या,
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तेजोलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या अने कृष्णलेश्या. तेमां शुक्ललेश्यावाला थोडा, तेथी पद्मलेश्याषाला संख्यातगुण तेथी तेजोलेश्यावाला संख्यातगुणा, तेथी कापोतलेश्यावाला अनंत गुणा, तेथी नीललेश्यावाला विशेष अधिक अने तेथी कृष्णलेश्यावाला विशेष अधिक होय छे.
हवे भव्यद्वारमां अल्पबहुत्व जणावे छे७८. अभव्यस्तोकेतराऽनन्ताः ।
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अभव्य थोडा, तेथी भव्य अनंतगुणा होय छे. हवे सम्यक्त्वद्वारमां अल्पबहुत्व जणावे छे७९. सास्वादनस्तोकौपशमिक - मिश्रसङ्ख्य वेदकाऽसङ्ख्यक्षायिक - मिथ्यात्वाऽनन्ताः ।
सास्वादन समकिती थोडा, तेथी औपशमिक समकिती संख्यातगुणा, तेथी मिश्रसमकिती संख्यातगुणा, तेथी वेदकक्षायोपशमिक समकिती असंख्यातगुणा, तेथी क्षायिकसमकिती अनंतगुणा अने तेथी मिथ्यादृष्टि अनंतगुणा होय छे.
हवे संज्ञीद्वारमां अल्पबहुत्व कहे छे८०. सञ्ज्ञिस्तोकेतरानन्ताः ।
संज्ञी जीवो थोडा, तेथी असंज्ञी अनंतगुणा. हवे आहारद्वारमां अललबहुत्व कहे छे
८१. अनाहारस्तोकेतरासङ्ख्याः ।
अनाहारी जीवो थोडा, तेथी आहारी असंख्यातगुणा.
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हवे कर्मबंधना हेतुओ कहे छे८२. मिथ्यात्वा विरतिकषाययोगा बन्धहेतवः ।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग ए चार कर्मबंधना हेतुओ छे.
हवे गुणस्थानोमां बंधना मूलहेतुओने विचारे छे८३. एक-चतुः पश्च - त्रिगुणेषु चतुस्त्रिद्वयेकप्रत्ययो बन्धः ।
एक प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानमां-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग ए चार बंध हेतुओ होय छे; सास्वादन, मिश्र, अविरत अने देशविरत ए चार गुणस्थानोमां- अविरति, कषाय, अने योग ए त्रण बंध हेतुओ होय छे; प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर अने सूक्ष्म संपराय ए पांच गुणस्थानोमां - कषाय अने योग ए बे बंध हेतुओ होय छे अने उपशांत मोह, क्षीणमोह भने सयोगिकेवली ए त्रण गुणस्थानोमां एक योग ज बंध हेतु छे.
८४. अभिग्रहेतराभिनिवेश संशयानाभोगज - मनइन्द्रियाsनियम - षड्जीववध - कषायनोकषाय - सत्यमन आद्या अजिनाहारक द्विकबन्धहेतवः ।
अभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, अभिनिवेशिक, सांशयिक अने अनाभोग ए पांच मिथ्यात्व; मन अने पांच इंद्रियोनो असंयम तथा पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति अने त्रस जीवोनी हिंसा ए बार अविरति अनंतानुबंधि क्रोध विगेरे सोल कषाय तथा हास्यादि छ अने त्रण वेद ए नव नोकषाय, एम पचीस कषायः सत्यमन आदि पंदर योग एम सत्तावन जिन
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नाम अने आहारकद्विक वर्जी शेष प्रकृतिओना बंधना हेतुओ छे. जिननाम अने आहारकद्विक समकित अने संयमथी बंघाब छे माटे एनुं वर्जन करें.
८५. न सम्यक्त्वमिश्रबन्धन सङ्घातानाम् ।
समतिमोहनीय अने मिश्रमोहनीयनो बंध होतो नथी. बंधननो अने संघातननो औदारिक आदि शरीरमां समावेश थतो होवाथी ए प्रकृतिओ बंधमां ग्रहण करी नथी.
८६. कृष्णादिविंशतौ वर्णगन्धरसस्पर्शाः ।
कृष्णवर्णनाम आदि वीस प्रकृतिओमांथी वर्णनाम, रसनाम, गंध नाम अने स्पर्शनाम ए चार प्रकृतिओ बंधमां गणवानी छे.
हवे गुणस्थानोमां प्रकृतिबंध जणावे छे८७. अजिनाहारकद्विको - ऽनरकत्रिकजातिस्थावर चतुष्क हुण्डातपसेवार्तनपुंसकमिथ्यात्वो ऽतिर्यक्स्त्यानद्धि - दौर्भाग्यत्रिकानन्तकषायमध्यसंस्थानसंहननचतुष्क
नीचोद्योताशुभगमस्त्र्यायुर्द्विकः सतीर्थायुर्द्विको वज्रनरत्रिकाप्रत्याख्यानौदारिकद्विको ऽप्रत्याख्यानावरणोSशोकारत्यस्थिरद्विकायशोऽसातः साहारकद्विको-सु
रायुष्काद्याऽनिद्राद्विकषडसुरद्विकपञ्चेन्द्रियशुभगमत्रसaar saौदारि कतनूपाङ्गसम निर्माणजिनवर्णागुरुल
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घुचतुष्कसप्तमो-ऽहास्यरतिकुत्साभय-प्रथमो-ऽपुंवेदान्त्य-क्रोधादिचतुर्भागोऽलोभसूक्ष्मान्तादर्शनचतुष्कज्ञानावृत्यन्तरायो-च्चयशस्काः । (त्रिषु सातः) बंधमां ओघे १२० प्रकृति होय छे. ते आ प्रमाणे-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, वेदनीय २, मोहनीय २६, आयुष्य ४, नामकर्म ६७, गोत्र २ अने अंतराय ५, ए सर्व मली १२० । मिथ्यात्वगुणस्थानमा जिननाम, आहारक अने आहारक अंगोपांग सिवाय ११७ प्रकृति बंधमां होय । मिथ्यादृष्टिगुणस्था नना भंतमां-नरकत्रिक-नरकगति नरकानुपूर्वी अने नरकायुष्य, जातिचतुष्क-एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रियजाति, स्थावरचतुष्क-स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, हुंड, आतप, सेवार्त्त, नपुंसकवेद अने मिथ्यात्व ए सोल प्रकृति व्युच्छेद जाय एटले सास्वादनगुणस्थानमां १०१ प्रकृति बंधाय । सास्वादनना अंतमां-तिर्यंचत्रिक-तियंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी अने तिर्यंचायुष्य, स्त्यानचित्रिक-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला अने स्त्यानद्धि, दौर्भाग्यत्रिक-दुर्भग, दुःस्वर अने अनादेय, अनंतवतुष्क-अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ, मध्यसंस्थान चनक-न्यग्रोध, सादी, वामन अने कुब्ज, मध्यस हननचतुष्क-ऋषभनागच, नाराच, अर्धनाराच अने कीलिका, मीचगोत्र, उद्योत, अशुभगम-अशुभधिहायोगति, स्त्रीवेद, आयुर्दिक-मनु यायुष्य अने देशायुष्य ए सत्तावीस प्रकृतिओनो अंत थवाथी ए तिवाय मिश्रगुणस्थानमां-- चुम्मोतेर बंधाय । ते चुम्मोतेर तीर्थ करनाम अने आयुर्द्विकमनुष्यायुष्य अने देवायुष्य (७४) सहित ७७ अविरतसम्य
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दृष्टिगुणस्थानां बधाय । अविरत - गुणस्थानने अंते वज्रऋपभनाराच संघयण, नरत्रिक- मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी अने मनुष्यायुष्य, अप्रत्याख्यानी चार कषाय, अने औदारिकद्विकऔदारिकशरीर अने औदारिकअंगोपांग ए दस प्रकृतिओनो अंत थाथी ए विना देशविरतगुणस्थानमां सडसठ (६७) बधाय । देश विरतने अंते प्रत्याख्यानावरण चार कषायनो अंत थाथी ए विना प्रमत्तगुणस्थानमा ६३ बंधाय । प्रमत्तने अंने शोक, अरति, अस्थिर द्विक-अस्थिर अने अशुभनाम, अपजश अने असातावेदनीय ए छ प्रकृतिओनो अंत थवाथी ए छ प्रकृति रहित अप्रमत्तगुणस्थानम आहारकद्विक सहित ५८ जो आयुष्य बधाय तो ५९. बंधाय । अपूर्वकरणगुणस्थानना कालना सात भाग करवा, तेमां प्रथमसप्तमभागमां देवायुष्य - रहित ५८ बंधा । प्रथमसप्तमभागना अंतमां निद्राद्विकनो अंत थवाथी, बीजा, त्रीजा, चोथा, पांचमा अने छट्टा सप्तमभागमां ५६ बधाय । छट्ठा सप्तमभागने अंते देवद्विक, पंचेंद्रियजाति, शुभविहायोगति, सनव-त्रल, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर अने आदेय, वैक्रिय, आहारक, तेजस अने आहारक अंगोपांग, समचतुरस्र, निर्माण, जिननाम, वर्ण-गंधरस-स्पर्शनाम, अगुरुलघु, उपघात, पराघात अने उच्छ्रबास ए तीस प्रकृतिओनो अंत थवाथी सातमा सप्तमभागमां २६ बंधाय । सातमा सप्तमभागना अंते हास्य, रति, कुत्सा अने भयनो व्यवच्छेद थवाथी अनिवृत्तिबादरना पांच भाग छे तेना प्रथम भागमा २२ बंधाय । बोजा भागमा पुरुषवेदरहित २१, बीजे भागे अंत्य-संज्वलन क्रोध विना २०, चोथे भागे संज्वलन मान रहित १९, अने पांचमे भागे संज्वलन माया
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रहित १८ नो बध होय । त्यारपछी लोम जवाथी १७ नो बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानके होय । हवे सूक्ष्मसंपरायने अंते दर्शनचतुष्क-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्या तराय, उच्चगोत्र अने जशनामकर्म ए सोल प्रकृतिनो अंत थवाथी उपशांतमोह, क्षीणमोह अने सयोगी ए त्रण गुणस्थाने एक सातावेदनीयनो बध होय, पछी सयोगी गुणस्थानने अंते सातावेदनीयना बंधनो अंत थाय छे. पछी आत्मा अबंध रहे छे ।
हवे नरकगतिमां बधस्वामित्व कहे छे८८. अनन्त्ये नरके सुरक्रियाहारकद्विकदेवायुनरकसूक्ष्म
विकलत्रिकैकेन्द्रियस्थावराऽऽतपा न । रत्नप्रभा आदि त्रण नरकमां देवद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवायुष्य, नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय. स्थावर अने आतप ए ओगणीश प्रकृति विना शेष १०१ प्रकृति ओधे बधमां होय । ८९. नरकोऽजिनो मिथ्यात्वे ।
मिथ्यात्वगुणस्थानमा जिननाम विना १०० नो बध होय । ९०. अनपुंमिथ्यात्वहुण्डसेवातः सास्वादने । ...
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सास्वादन गुणस्थानमा नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंड अने सेवात ए विना ९६ बधमां होय । ९१. अनन्तमध्याकृतिसंहननाऽशुभगमनीचस्त्रीदौर्भाग्य
स्त्यानगृद्धित्रिकोद्योततिर्यद्विकतिर्यग्नरायुष्को [ नरौदारिकद्विकऋषभो] मिश्रे । मिश्रगुणस्थानमा अनंतानुबधिवतुष्क, न्यग्रोध, सादि, वामन अने कुब्ज ए चार संस्थान, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच अने कीलिका ए चार संघयण, अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दौर्भाग्य, दुःस्वर, अनादेय, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, थीण द्धि, उद्योत, तिर्यचद्विक नियंचनुं आयुष्य अने मनुष्यनु आयुष्य ए छब्बीश प्रकृति विना ७० बंधाय । ९२. सजिननरायुष्कोऽयते ।
अविरत सम्यक्त्वगुणस्थानमा जिननाम अने मनुष्यायुष्य सहित ९२ प्रकृति बधाय । ९३. पङ्कातो न तीर्थम् ।
पंकप्रभा आदि त्रण नरकमां तीर्थ करनामनो बध न होय तेथी त्यां मोघे १००, मिथ्यात्वे १००, सास्वादने ९६, मिश्रे ७०, सम्यक्त्वे ७१, बधमां होय । ९४. माघवत्यां नरायुः ।
सातमी नरकमां मनुष्यायुष्यनो पण बध न होय तेथी त्यां ओघे ९९ बंधाय ।
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९५. नरद्विकोच्चौ मिथ्यात्वे ।
मिथ्यात्वगुणस्थानमां मनुष्यद्विक अने उच्चगोत्र ए न बंधाय तेथी प्रण विना ९६ नो बंध होय । ९६. तिर्यगायुर्नपुंश्चतुष्कं सास्वादने ।
सास्वादन गुणस्थानमा तिर्यचन आयुष्य अने नपुंचतुष्क-नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुडसंस्थान अने छेवट्ठ संघयण न बंधाय तेथी ए पांच विना ९१ बंधाय । ९७. अनन्तचतुर्विशतिमिश्रद्विके सनरद्विकोच्चः ।। __ मिश्र भने अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमा अनंतानुबधि आदि चोवीस प्रकृति विना-अनंतानुबंधिचतुष्क, मध्यमसंस्थान ४, मध्यमसंघयण ४. अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दौर्भाग्यत्रिक, थीणद्धित्रिक, उद्योत अने तिर्यचद्विक विना नरद्विक अने उच्चगोत्रसहित ७० प्रकृति बंधाय ।
हवे तिर्यचगतिमां बंध कहे छे९८. तिरश्चि पर्याप्तोऽनरकषोडशकः सास्वादने । __तिर्यंचगतिमां पर्याप्तातिर्य चने (ओधे अने मिथ्यात्वे जिननाम अने आहारकद्विक विना ११७ नो बंध होय) सास्वादनमां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक; एकेंद्रिय, स्थावर, आतप, नपुंसकवेद, मिथ्यान्व, हुड अने छेवटुं ए सोल प्रकृति विना १०१ प्रकृतिनो बध होब ।
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९९. असुरायुरनन्तैकत्रिंशो मिश्र ।
मिश्र देवायुष्य अने अनंतानुबंधी आदि एकत्रीस - अनंताबंधी ४, मध्यम संस्थान ४, मध्यम संघयण ४, अशुभ विहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भगत्रिक, थीणद्धित्रिक, उद्योतनाम, तिर्यचद्विक, तिर्यचायुष्य, मनुष्यायुष्य, मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक अने वज्रऋषभनाराच संघयण एम बत्रीश विना ६९ प्रकृति बंधाय ।
१०० ससुरारयते ।
अविरत गुणस्थानमा देवायुष्य सहित ७० प्रकृति बंधाय । १०१ अद्वितीयकषायो देशे ।
देशविरत गुणस्थानमां अप्रत्याख्यानीय चार कषाय विना ६६ प्रकृति बांधे ।
१०२ अपर्याप्तोऽजिनैकादशः ।
अपर्याप्ता तिर्यच अने मनुष्य, जिननाम आदि अगीयारजिननाम, देवशिक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवायुष्य अने नरकत्रिक ए अगीयार प्रकृति विना १०९ प्रकृति बांधे ।
हवे देवगतिने विषे बंध कहे छे
१०३. एकेन्द्रियत्रिक कल्पद्वये ।
नारकीनी जेम देवताने बंध कहेबो पण ओघे अने मिथ्यात्व गुणस्थान मां एकेंद्रिय, स्थावर अने आतप ए त्रण सहित कहेवो. बे देवलोकमां ए ज बंध कहेवो ।
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१०४. अनुद्योतचतुष्कमासहस्रारात् ।
सहस्रार पछीना आनत विगेरे देवोमां उद्योत, तिर्यचद्विक अने तिर्यंचायुष्य विना बंध कहेवो ।
हवे इंद्रियमार्गणाने विष बंध कहे छे१०५. एकेन्द्रियपृथ्व्यम्बुवृक्षविकलाः ।
एकेंद्रिय, पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय अने विकलेंद्रिय (अपर्याप्त तिर्यंचनी जेम) मिथ्यात्वगुणस्थानमा १०९ बांधे। १०६. न सूक्ष्मत्रयोदशः सास्वादने ।
सास्वादनगुणस्थानमां सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर, आतप, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंड अने छेवटुंए तेर प्रकृति विना ९६ बांधे। १०७. वाय्वग्न्योर्जिनैकादशनरत्रिकोच्चाः।
वायुकाय अने अग्निकाय-जिननाम, देवद्विक, वैकियद्विक, आहारकद्विक, देवायुष्य, नरकत्रिक, मनुष्यत्रिक अने उच्चगोत्र ए पंदर प्रकृति विना १०५ प्रकृति बांधे । अने गुणठाणु एक ज मिथ्यात्व होय । अहिं निषेध पाछलना सूत्रथी आवे छे.
हवे योगमागणामां बंध कहे छे१०८. औदारिकमिश्र नाहारकषट्कम् ।
औदारिकमिश्रकाययोगमा ओघे आहारकद्विक, देवायुष्य अने नरकत्रिक ए छ प्रकृति विना ११४ होय ।
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१०९. मिथ्यात्वे जिनपञ्चकम् ।
मिथ्यात्वगुणस्थानमां जिननाम, देव द्विक अने वैक्रियद्विक ए पांच विना १०९ बांधे । निषेधनी अनुवृत्ति चाले छे। ११०. सास्वादनेऽतिर्यग्नरायुःसूक्ष्मत्रयोदशकम् ।
सास्वादन गुणस्थानमा तिर्य चायुष्य, मनुष्यायुष्य, सक्ष्मप्रयोदश-सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर, आतप, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंड अने छेवटुं ए पंदर प्रकृति विना ९४ बांधे। १११. अननन्तचतुर्विशतिरयते जिनपञ्चकम् ।
अविरतगुणस्थानमां अनंतानुबंधिचतुष्क, मध्यमसंस्थान ४, मध्यमसंघयण ४, अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भगत्रिक, थीणद्धित्रिक, उद्योत अने तिर्य चद्विक ए चोवीश प्रकृति विना अने जिनपंचक-जिननाम, देवद्विक अने वैक्रियहिक ए पांच प्रकृति सहित ७५ बांधे । ११२. सातं सयोगिनि ।
सयोगि गुणस्थाने एक सातावेदनीय ज बांधे । ११३. न तियङ्नरायुषी कार्मणे ।
कार्मणकाययोगमा तिर्यंचायुष्य अने मनुष्यायुष्य सिवाय औदारिकमिश्रनी जेम बंध जाणवो । ११४. वैक्रियमि।।
(वैक्रियकाययोगमां देवतानी जेम बंध जाणवो) वैक्रिय
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मिश्रकाययोगमां तिर्यवायुष्य अने मनुष्यायुष्य विना बंध जाणवो। ११५. औपशमिकस्य न देवमनुजयोरायुरयते । ____ औपशमिकसम्यक्त्वमां अयते-अविरतगुणस्थानमां देव अने मनुष्यना आयुष्य सिवाय बंध जाणवो । ११६. देशादौ सुरस्य । .
देशविरत आदि गुणस्थानमां देवायुज्य विना बंध जाणत्रो। ११७. लेश्यात्रये नाहारकम् । ११८. तीर्थ मिथ्यात्वे ।
प्रथम प्रण लेश्यामां ओघे आहारकनिक विमा ११८ 'प्रकृति बंधमां होय । मिथ्यात्वगुणस्थानमां जिननाम विना ११७ बंधमां होय। ११९. नरकनवकं तैजस्याम् ।
तेजोलेश्यामां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक भने विकलत्रिक ए नव विना १११ बंधमां होय । १२०. द्वादशकं च पद्मायाम् ।
पद्मलेश्यामां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर अने आतप ए बार विना १०८ प्रकृति ओधे बंधमां होय । १२१. उद्योतचतुष्कमपि शुक्लायाम् ।।
शुक्ललेश्यामां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकें
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द्रिय, स्थावर; आतप, उद्योत, तिर्यचद्विक अने तिर्यचायुष्य ए सोल विना १०४ प्रकृति बधमां होय ।।
. (बधाधिकार समाप्त ।)
हवे १४ गुणस्थानोमां उदय कहे छे१२२. उदये सम्यक्त्वमिश्र अपि ।।
उदय एटले अनुभवथी कर्मनु भोगवावु. बंधमां ओधे १२० प्रकृतिओ होय छे. ज्यारे उदयमा समकितमोहनीय अने मिश्रमोहनीय ए बे प्रकृतिओ पण होय छे. एथी उदयमां ओघे १२२ होय छे. १२३. अजिनाहारकद्विकमिश्रसम्यक्त्वोऽसूक्ष्मत्रिकातप
मिथ्यात्वोऽनरकानुपूवी कोऽननन्तकषायस्थावरैकविकलाक्षानुपूर्वी त्रिकःसमिश्रोऽ मिश्रः ससम्यक्त्वानुपूर्वी चतुष्कोऽ प्रत्याख्याननरतिर्यगानुपूर्वी वैक्रियद्विकसुरनरकत्रिकदौर्भाग्यानादेयद्विकोऽ'तिर्य ग्गत्यायुनी चोद्योतप्रत्याख्यानावरणसाहारकद्विकोऽस्त्यानर्द्वित्रिकाहारकद्विको सम्यक्त्वान्त्यसंहननत्रिकोऽ"हास्यषट्को-5 °वेद संज्वलनत्रिकोऽ'लोभोऽनृषकाऽन्त्येभद्विकोपान्त्योऽनिद्राद्विकोऽन्त्योऽ' ज्ञानान्तरायपञ्चकदर्शनचतुष्कः सजिनोऽ नौदारिकास्थिरगमद्विकप्रत्येकत्रिकसंस्थानषट्कागुरुवर्णचतुष्क
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निर्माण तेजसकार्मणवज्रदुःस्वरसुस्वरसाताऽसातान्यतरोऽन्त्यान्त - सुभगादेययशो ऽन्यतर वेदनीयत्रसत्रिकपञ्चेन्द्रियनरगत्यायुर्जिनोच्चः ।
९. मिथ्यात्वगुणस्थाने – जिननाम, आहारकद्विक- आहारकशरीर अने आहारक अंगोपांग, मिश्रमोहनीय अने समकित - मोहनीय ए पांव सिवाय ११७ प्रकृतिओ उदयमां होय छे ।
२. सास्वादन गुणस्थानमां-सूक्ष्मत्रिक-सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, आतप, मिथ्यात्व अने नरकानुपूर्वी सिवाय १११ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
३. मिश्र गुणस्थानमां- अनंतानुबंधिकषाय- क्रोध, माया अने लोभ, स्थावर, एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चडरिंद्रिय अने तिर्यचानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी अने देवानुपूर्वी त्रण आनुपूर्वी रहित अने मिश्रमोहनीय सहित १०० प्रकृतिओ उदयमां होय ।
मान,
·
मान,
४. अविरत गुणस्थानमां- मिश्रमोहनीयरद्दिन समकित मोहनीय अने चार आनुपूर्वी सहित १०४ प्रकृतिओ उदयमां होय । ५. देशविरत गुणस्थान मां- अप्रत्याख्यानीय क्रोध, माया अने लोभ ४, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यचानुपूर्वी, वैक्रियद्विकवैक्रियशरीर अने वैक्रिय अंगोपांग, देवत्रिक - देवगति, देवानु. पूर्वी अने देवायुष्य, नरकत्रिक - नरकगति, नरकानुपूर्वी अने नरकायुष्य, दौर्भाग्य अने अनादेयद्विक- अनादेय अने अपयश ए सत्तर विना ८७ प्रकृतिओ उदयमां होय |
६. प्रमत्तगुणस्थाने - तिर्यंचगति, तिर्यचायुष्य, नीचगोत्र,
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उद्योत अने प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभ ४, ए आठ रहित अने आहारकद्विक आहारकशरीर अने आहारक अंगोपाग सहित ८१ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
७. अप्रमत्तगुणस्थाने - स्त्यानर्द्धित्रिक निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला अने स्त्यानर्द्धि अने आहारकद्विक आहारकशरीर अ आहारक अंगोपांग ए पांच रहित ७६ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
८. अपूर्व करणगुणस्थानमां सम्यक्त्वमो, मो., अंत्य संहननत्रिक - छेल्लां त्रण संघयण- अर्धनाराच, कीलिका अने छेवडे प चार रहित ७२ प्रकृतिओ उदयमां होय |
९. अनिवृत्तिबादर गुणस्थानमां- हास्यादि छ रहित ६६ प्रकृतिओ उदयमां होय |
१०. सूक्ष्मसंपरा यगुणस्थाने-त्रण वेद - स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसक वेद, संज्वलन क्रोध, मान अने माया ए छ सिवाय ६० प्रकृतिओ उदयमां होय ।
११. उपशांतमोहगुणस्थाने-लोभ रहित ५९ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
१२. क्षीणमोह गुणस्थानमां-छेल्ला समयनी पहेला समयमां ऋषभनाराचद्विक ऋषभनाराच अने नाराचसंघयण रहित ५७ प्रकृतिओ अने छेल्ला समयमां निद्राद्विक-निद्रा, प्रचला रहित ५५ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
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१३ सयोगिकेवलिगुणस्थाने - ज्ञानावरणीय ५, अंतराय ५, अने दर्शनावरणीय ४, ए चौद रहित अने जिननाम सहित ४२ प्रकृति भो उदयमां होय ।
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१४. अंत्य-अयोगिकेवलिगुणस्थानमां-औदारिकद्विक, औदारिकशरीर अने औदारिक अंगोपांग, अस्थिरद्विक-अस्थिर अने अशुभ, गम-विहायोगति-द्विक-शुभविहायोगति अने अशुभविहायोगति, प्रत्येकत्रिक-प्रत्येक, स्थिर अने शुभ, संस्थान ६, अगुरुलघुचतुष्क-अगुरुलघु, उपघात, पराघात अने उच्छ्वास, वर्णचतुष्क-वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, निर्माणनाम, तेजप्तशरीर, कार्मणशरीर, वज्रऋषभनाराच संघयण, दुःस्वरनाम, सुस्वरनाम, सातावेदनीय अने असांतावेदनीय, ए बेमांनी एक, एम त्रीश रहित १२ प्रकृतिओ उदयमां होय ।।
अन्त्यान्त-अयोगि गुणस्थानमा छेल्ला समये सुभगनाम, आदेयनाम, यशनाम, बेमांथी एक वेदनीय, त्रसत्रिक-त्रस, बादर अने पर्याप्त, पंचेंद्रियजाति, मनुष्य गति, मनुष्यायुष्य, जिननाम अने उच्चगोत्र ए बार प्रकृतिनो अंत थाय छ।
उदयाधिकार समाप्त
उदीरणा १२४. नोदीरणाऽयोगिनि । १२५. आऽप्रमत्ताद् वेदनीयद्विकाऽऽयुषाम् ।
अयोगिकेवलिगुणस्थानमां उदीरणा न होय । उदीरणा एटले उदयमां नहिं आवेला कर्मपुद्गलने उदयमां आणवा । अप्रमत्त आदि सात गुणस्थानोमां वेदनीयद्विक-सातावेदनीय अने असातावेदनीय अने मनुष्यायुष्य
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ए त्रण प्रकृतिओ करीने न्यून जाणवी. कारण के-ए सात गुणस्थानमा ए त्रण प्रकृतिओनी उदीरणा न होय ।
उदीरणाधिकार समाप्त
सत्ता १२६. सत्ता आ उपशान्तात् सर्वासाम् ।
सत्ता एटले कमोनी विद्यमानता । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानथी मांडी उपशांतमोह गुणस्थान सुधी सर्व प्रकृतिओनी (१४८) सत्ता होय छे । १२७. विजिनौ द्वितीयतृतीयौ ।
प्रथम गुणस्थाने १४८ नी सत्ता. बीजे अने त्रीजे गुणस्थाने जिननाम विना १४७ नी सत्ता होय छे। १२८. अदर्शनत्रिकानन्ताऽनरायुष्कोऽनिवृत्तिः क्षपकोऽ
यतात् । क्षायिकसमकितीने अयत-अविरतगुणस्थानथी मांडी अनिवृत्ति-बादर गुणस्थानना प्रथम भाग सुधी दर्शनत्रिकसम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अने मिथ्यात्वमोहनीय, अनंतानुबंधिकषाय ४, अने अनर-मनुष्य सिवाय त्रण आयुष्य ए १० रहित १३८ नी सत्ता होय । १२९. अस्थावरतिर्यग्नरकातपद्विकस्त्यानगृद्धित्रिकैकविकला
क्षसाधारणद्वितीयोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणतृतीयः
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क्रमान्नपुंसकस्त्रीहास्यषट्कपुंस्तुर्यक्रोधमदमायाक्षयोऽलोभान्त्य द्वितीयोऽनिद्राद्विकान्त्योऽज्ञानान्तरायदर्शना - ऽदेवगमगन्धद्विकस्पर्शाष्टकवर्णरसतनुबन्धन सङ्घात
नपञ्चकनिर्माण संहननसंस्थानास्थिरषट्कागुरुलघुचतुष्कापर्याप्तप्रत्येको पाङ्गत्रिकसुस्वरनीचान्यतरवेदनी
यान्त्यः ।
४ ए आठ
अनिवृत्तिना बीजा भागमां- स्थावरद्विक-स्थावर अने सूक्ष्म तिर्यचद्विक- तिर्यचगति भने तिर्यखानुपूर्वी, नरकद्विकनरकगति अने नरकानुपूर्वी, आतपद्विक आतप अने उद्योत, स्त्यानर्द्धित्रिक, एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय अने साधारण ए सोल प्रकृति रहित १२२ नी सत्ता होय । त्रीजा भागमां- अप्रत्याख्यानीयकषाय ४ अने प्रत्याख्यानावरणकषाय रहित ११४ नी सत्ता । चोथा भागमां नपुंसक वेद रहित ११३ नी सत्ता । पांचमा भागमांस्त्रीवेदरहित ११२नी सत्ता । छठ्ठा भागमां हास्यादि छ रहित १०६ नी सत्ता | सातमा भागमां- पुरुषवेद रहित १०५ नी सत्ता । आठमा भागमांसंज्वलन कोष रहित १०४ नी सत्ता । नवमा भागमां-संज्वलन मद-मानरहित १०३ नी सत्ता । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानमां मायारहित १०२ नी सत्ता । क्षीणमोह गुणस्थानना अंत्यद्वितीय - छेल्ला समयनी पहेला समयमां लोभ रहित १०१ नी सत्ता । अंत्य-छेल्ला समये निद्राद्विक-निद्रा अने प्रचला रहित ९९ नी सत्ता । सत्ता । सयोगिकेवलिगुणस्थाने - ज्ञानावरणीय ५, अंतराय ५ अने दर्शनावरणीय ४ ए १४ प्रकृति रहित ८५ नी
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सत्ता | अंत्य - प्रयोग केवलिगुणस्थानना छल्ला समयमां देवद्विक- देवगति अने देवानुपूर्वी, गम विहायोगति-द्विक- शुभ विहा योगति अने अशुभ विहायोगति, गंधद्विक-सुरभिगंध अने दुरभिगंध, स्पर्शाष्टक - गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निग्ध अने रूक्ष, वर्णनाम ५ - कृष्ण, लीलो, लाल, पीलो अने शुक्ल, रसनाम ५तीखो, कडवो, तुरो, खारो अने मीठो, शरीर ५, बंधन ५, संघातन ५, निर्माणनाम, संघयण ६, संस्थान ६, अस्थिरषट्कअस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःखर, अनादेय अने अपयश, अगुरुलघुचतुष्क- अगुरुलघु, उपघान, पराघात अने उच्छ्वास, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकत्रिक प्रत्येक, स्थिर अने शुभ, उपांगत्रिक औदारिक उपांग; वैकिय उपांग अने आहारक उपांग, सुस्वरनाम, नीचगोत्र अने अन्यतर- सातावेदनीय अने असातावेदनीय ए बेमांथी एक, एवं ७२ प्रकृतिरहित १३ नी सत्ता होय ।
१३०. अन्त्यान्त्ये छेदः ।
अयोगिकेवलिगुणस्थानना छल्ला समये १३ प्रकृतिनो
छेद थाय छे ।
सत्ताधिकार समाप्त
( भावतद्भेदाः) भावनुं वर्णन
१३१. उपशमक्षय मिश्रोदयपरिणामसंयोगजा द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिषड्विंशतिभेदाः ।
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औपशमिक, क्षायिक, मिश्र-क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणा मिक अने संयोगज-लांनिपातिक ए छ भाव छे. एना (अनुक्रमे) बे, लव, अढार, एकवीश, त्रण अने छव्वीश भेदो छ । १३२. सम्यक्त्वचारित्रे ।
__ औपशमिकभावमा उपशमसम्यक्त्व अने उपशमचारित्र ए बे भेद होय छे । १३३. केवलज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च । ___ क्षायिकभाव मां-केवलज्ञान, केवलदर्शन, दानलब्धि, लाभ लब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, वीर्यलब्धि अने चशब्दथी क्षायिकसम्यक्त्त्व अने क्षायिकचारित्र एम नव भेद जाणवा । १३४. सशेषोपयोगदेशानि । ___ भायोपशमिकभावमां-शेषोपयोग-बाकीना दश उपयोगमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान, देशविरति सहित दानादि पांच लब्धि-दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि अने वीर्यलब्धि, सम्यक्त्व अने चारित्र ए अढार भेद जाणवा। १३५. गतिवेदकषायलेश्यामिथ्यात्वाऽज्ञानासंयतासिद्धत्वानि ।
__ औदायिक भावमां-गति ४-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुव्यगति, देवगति, वेद ३-स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद, कषाय ४-क्रोध, मान, माया अने लोभ, लेश्या ६-कृष्ण, नील,
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૪૬
कापोत, तेजो, पद्म अने शुक्ललेश्या, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयतत्व अने असिद्धत्व एम २९ भेद जाणवा ।
१३६. जीवभव्याभव्यत्वानि ।
पारिणामिक भावमां जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व एम त्रण भेद जाणबा
१३७. चतुर्गतिषु परिणामोदयजाः सोपशमक्षय मिश्राः केवलिनि च सक्षयजाः ।
चारे गतिमां औपशमिकभाव, क्षायिकभाव अने क्षायोपशमिकभाव सहित पारिणामिक अने औदयिक भाव होय अने केवलिने विषे क्षायिकभाव सहित पारिणामिक अने औदयिकभाव होय ।
१३८. क्षयपरिणामजौ सिद्धे ।
सिद्ध भगवंतने विषे क्षायिक अने पारिणामिक बे ज भाव होय ।
१३९. उपशमश्रणौ पञ्चजः ।
उपशमश्रेणिमां पांच संजोगीभाव होय ।
१४०. धर्माऽधर्माssकाशकालाः पारिणामिके ।
धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय अने काल ए चार पारिणामिकभावमां होय । १४१. पुद्गला औदयिके च ।
स्कंधपुद्गलो औदयिकभाव भने पारिणामिकभावमां होय ।
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૪૭
(सङ्ख्यातादिमेदः) हवे संख्यातादिनुं स्वरूप कहे छे१४२. द्वितः सङ्ख्या ।
संख्यातु एक होय छे । असंख्यातना त्रण भेद - परीत असंख्यात, युक्त असंख्यात अने असंख्यात असंख्यात । एवी ते अनंतना त्रण भेद- परीत्त अनंत, युक्त अनंत अने अनंतानंत । एम सात भेद थया । दरेक जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एम त्रण भेदे होय, तेथी सातने त्रण गुणतां एकवीश भेद होय । तेमां जघन्य संख्यातु ये ज होय, कारणएकनी संख्या होय नहीं, बेथी ज संख्या होय । त्रण चार पांच विगेरे यावत् उत्कृष्ट संख्यातु आवे त्यां सुधी मध्यम संख्यातु जाणवु ।
हवे उत्कृष्ट संख्यातु कहे छे
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१४३. योजन सहस्रो द्वेधाः सशिखवेदिकान्ताः शतसहस्रयोजनायामा वृत्ताः पल्याः शलाका प्रतिशलाकामहाशलाका अनवस्थित आदौ तत्सर्षपावगाढमानः परतः प्रतिक्षेपं शलाकादौ सर्षपक्षेपः ।
एक हजार योजन उंडा लाखयोजन पहोला, गोल वेदिकाना अंत सुधी शिखा सहित सरलवे करो भरेला चार पाला कल्पवा । प्रथम अनवस्थित नामे, बीजो शलाका नामे, त्रीजो प्रतिशलाका नामे अने चोथो महाशलाका नामे । त्यां पहेलो पालो सरसवे करी शिखा सहित भरीए । पछी ते भरेल अनवस्थित पालो उपाडीने तेमांथी एकेक सरसव द्वीप अने समुद्रने विषे
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४८
नांखीए. नांखतां पालो ज्यारे खाली थाय त्यारे ज्यां पालो खाली थयो ते द्वीप अथबा समुद्र जेवडो पालो कल्पीय ते वली सरसवे भरीए । पछी ते पालाने उपाडीने द्वीप- समुद्रमां एकेक सरसव नांखतां पूर्वनी पेठे खाली थाय त्यारे एक सरसवनो दाणो शलाका पालामां नांखीए । वली ते ज्यां खाली थयो ते द्वीप अथवा समुद्र जेवडो पालो कल्पीए । पम पहेला (अनवस्थित) पाला जेम जेम खाली थता जाय तेम तेम शलाका पालामां एकेक सरल नांखता जइए अने ते ते द्वीप- समुद्र जेवडा पाला कल्पता जइए एम वारंवार करीए. एम करतां ज्यारे शलाका पालो भराय त्यारे पूर्वनी जेम शलाका पालो उपाडीने त्यांथी आगलना द्वीप - समुद्रमां एकेक सरसव मूकीए । एम करतां शलाका पालो खाली थाय त्यारे वीजा प्रतिशलाका पालामां एक सरसव मूकीए । चली त्यां अनवस्थितपालो कल्पीए। एवी ज रीते पहेला अनवस्थित पालाए करी बीजो शलाका पालो भरीए, ते शलाका पाले की बीजो प्रतिशलाका पालो भरीए अने प्रतिशलाका पाले करीने चोथो महाशलाका पालो भरीए । ते महाशलाका भय पछी प्रतिशलाका भरीए ते पछी शलाका भरीए अने ते त्रणे ज्यां भराइ रह्या ते द्वीप - समुद्र जेवडो अनवस्थित पालो कल्पीए तेने खरसवे भरीए एटले चार पाला पूर्ण भराय ।
१४४. पूर्णचतुष्के रूपोना क्षिप्तयुताः परा सङ्ख्या सरूपं जघन्यं परीत्ताsस ङ्खयम् ।
ज्यारे ४ पाला भराय त्यारे एक जग्याए खाली करवा
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भने जे जे द्वीप-समुद्रमा नांख्या हता ते पण आमां उमेरवा, हवे ए राशि एकरूप ऊण करवाथी उत्कृष्ट संख्यातु आवे, अने ए एकरूप उमेरतां जघन्य परीत्त असंख्यातु आवे। १४५. अभ्यासे युक्तम् ।
जघन्य परीत्त असंख्यातने अभ्यास करतां जघन्य युक्त असंख्यातु आवे । १४६. पुनः पुनः स्वयुतासङ्ख्यपरीत्तयुक्तस्वयुतानन्तम् ।
जधन्य युक्त असंख्यातलो अभ्यास करतां जघन्य असंख्यातायात आहे, चली जघन्य अख्यात-असंख्यातनो अभ्यास करतां जघन्य परीत्त अनंत आवे, वली जघन्य परीत्त अनंतनो अभ्यास करतां जघन्य युक्त अनंत आवे, बली जघन्य युक्त अनंतनो अभ्यास करतां जघन्य अनंतानंत आवे ! १४७. सर्वत्र रूपोनं पश्चिमं परम् ।
बधामा एकरूप ओर्छ करीए त्यारे पाछलनु उत्कृष्ट थाय ! १४८. मध्ये मध्यमम् ।
वचमां मध्यम जाणवू । १४९. नानन्तानन्तमुत्कृष्टम् ।
उत्कृष्ट अनंतानंत नथी । १५०. केचितु युक्तेऽसङ्ख्ये वर्गिते सप्तम, त्रिवर्गिते
दशक्षेप लोकाकाशधर्माधमै कजीवप्रदेशस्थितिबन्धा
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૫૦
ऽध्यवसायानुभागयोगभागोत्सर्पिणी- तत्समयप्रत्येकनिगोदक्षेपे त्रिवर्गे आद्यानन्तम् ।
केटलाक आचार्य कहे छे चोथु युक्त असंख्यातने एक वार वर्ग करीर त्यारे सातमु जघन्य असंख्यात - असंख्यात थाय । वली ते सातमाने त्रण वार वर्ग करोए पछी तेमां लोकाकाशना प्रदेशो, घर्मास्तिकायना प्रदेशो, अधर्मास्तिकायना प्रदेशो, एकजीवना प्रदेशो स्थितिबंधना अध्यवसायस्थानो, अनुभाग-रस बंधना अध्यवसाय स्थानो, योगना अविभाज्य भागो, उत्सर्पिणी अब सर्पिणीना समयो, प्रत्येक शरीरवाला जीवो अने निगोदो. ए दशनो क्षेप करीए पछी ते राशिने त्रण वखत वर्ग करी त्यारे आद्यानंत- जघन्य परीत्त अनंतु थाय । १५१. अभ्यासे तु त्रिवर्गिते सप्तमं च । त्रिवर्गिते
-
सिद्ध निगोदतरुकालपरमाण्वलोकाकाशे
क्षिप्ते त्रिवर्गे केवलद्विके परम् ।
जघन्य परीत्त अनंतनो अभ्यास करीए त्यारे चोथु जघन्य युक्त अनंतु थाय, वली ते जघन्य युक्त अनंतनो त्रण वार वर्ग करी त्यारे सातमु जघन्य अनंतानंत थाय. वली जघन्य अनंतानं तनो त्रण वार वर्ग करीए पछी तेमां सिद्धना जीवो, निगोदना जीवो, तरु-वनस्पतिना जीवो, काल-त्रण कालना समयो, पुद्गलना परमाणुओ मने अलोकाकाशना प्रदेशी नांखीए पछी ए राशिनो त्रण वखत वर्ग करीने केवलज्ञान अने केवलदर्शनना पर्यायो उमेरीप त्यारे उत्कृष्ट
अनंतानंत थाय ।
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૫૧
हवे ध्रुवबंध प्रकृति | | है (ध्रुवबन्धः )
१५२. आवरणचतुर्दशकमिथ्यात्वकषायभयकुत्सावर्णचतुकागुरुलघुतैजस कार्मणनिर्माणोपघातान्तरायाणां ध्रुवं
बन्धः ।
पोतानो हेतु होय त्यारे जे प्रकृति अवश्य बंधाय ते ध्रुवबंधी अने जे अबश्य न बांधाय ते अंध्रुवबंधी. तेमां ध्रुवबंधी ४७ प्रकृतिओ छे. ते आ प्रमाणे आवरणचतुदर्शक - ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय प, मिथ्यात्वमोहनीय, कषाय १६, भयमोहनीय, दुर्गामोहनीय, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु तैजस, कार्मण, निर्माण, उपघात अने अंतराय ५ ए ४० प्रकृतिओनो ध्रुवबंध जाणवो बाकीनी प्रकृतिओ अध्रुवबंधी जाणवी.
हवे धुवोदयी प्रकृति कहे छे१५३. ज्ञानचतुष्ट्यावरणमिथ्यात्व निर्माणस्थिरास्थिरशुभाशुभतैजस कार्मणागुरुलघुवर्णचतुष्कान्तरायाणामुदयः ।
पोताना उदयव्युच्छेदकाल सुधी जे प्रकृतिनो सतत उदय होय ते ध्रुवोदयी, अने जे प्रकृतिनो उदयव्युच्छेद पाम्यो होय छतां द्रव्य-क्षेत्र आदि भावने पामी फरी उदयमां आवे ते अधुवोदयी जाणवी. तेमां ध्रुवोदयी सत्तावीस ते आ प्रमाणेज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, मिथ्यात्व निर्माण, स्थिर,
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પર
अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, पर्णचतुष्क ४, अने अंतराय ५, ए सत्तावीसनो ध्रुव उदय होय छे. चाकीनी प्रकृतिओं अध्रुवोदयी जाणवी.
____ हवे अध्रुवसत्ता प्रकृति कहे छे१५४. सम्यक्त्वमिश्रनरद्विकजिनायुवै क्रियैकादशाहारक
सप्तकोच्चमध्रयम् । अनादि मिथ्यात्वी जीवने जे निरंतर सत्ताए होय ज ते ध्रुवसत्ता, अने जे कोई वोर सत्ताए होय कोई वार सत्ताए न होय ते अध्रुवसत्ता. तेमां अध्रुवहात्ता सहावीस. ते आ प्रमाणे-सम्यक्त्यमोहनीय, मिश्रमोहनीयमनुस्मक, सिम; आयुष्य ४, वैक्रिय एकादश, आहारकलप्तक अने उच्चगोत्र, ए अट्ठावीस अध्रुवसत्ता, बाकीनी प्रकृतिओ ध्रुवसत्ता जाणवी.
गुणस्थानमां ध्रुवसत्ता कहे छे१५५. ध्रुवं त्रिगुणे मिथ्यात्वं, सास्वादने चानन्ताः
सम्यक्त्वं मिश्र मिश्रे च ।
आहारकतीर्थयोन मिथ्यात्वम् । पहेला त्रण गुणठाणाने विष मिथ्यात्व नियमा होय अने सास्वादनमां अनंतानुबंधिकषाय ४ सम्यक्त्वमोहनीय नियमा होय अने मिश्रमोहनीय निश्चये होय, अने मिश्रगुणस्थानके मिश्रमोहनीय नियमा होय.
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૫૩
'आहारकनाम अने तीर्थ करनामकर्मनी सत्ताभां मिथ्यात्व न होय. '
हवे घाती प्रकृतिने कछे छे
१५६. केवलद्विकावरण निद्रापञ्चका ऽऽद्यकषायद्वादशक मिथ्यात्वानि सर्वथा शेषावरणसज्ज्वलननोकषायान्तराया देशतश्च घातिन्यः ।
पोताना ज्ञानादिगुणने सर्वथा हणे ते सर्वघाती अने कांक हणे ते देशघाती. तेमां केवलद्विकावरण - केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण. निद्रापंचक, पहेला बार कषाय अने मिथ्यात्व ए बील प्रकृति सर्वघाती अने शेषावरण-मत्यादि चार ज्ञानावरणीय अने ऋण दर्शनावरणीय, संज्वलन कषाय ४, नोकषाय ९ अने अंतराय ५ प पच्चीस प्रकृति देशघाती होय छे.
हवे पुण्यप्रकृति कहे छे
१५७. सुरनरत्रिकोच्च सातत्रसदश कतनूपाङ्गवज्रचतुरस्रानुपघातागुर्वादिसप्तक तिर्यगायुर्वर्ण चतुष्कपञ्चाक्षशुभगमाः पुण्यं ( शेषः) पापे विवर्ण चतुष्कम् |
देवत्रिक, मनुष्यत्रिक, उच्चगोत्र, सातावेदनीय, त्रसनो दशको, शरीर ५, उपांग ३, वज्रऋषभनाराचसंघषण, समचतुः
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૫૪
रनसंस्थान, उपघात सिवाय अगुरुलघु आदि लात-अगुरुलघु, पराघात, उच्छवास, आतपनाम, उद्योतनाम, तीर्थ करनाम अने निर्माणनाम, तिर्यंचायुष्य, वर्ण आदि चार, पंचेंद्रियजाति अने शुभविहायोगति ए ४२ पुण्य प्रकृतिओ छे.
बाकीनी ७८ अने अशुभवर्णादि ४ एम ८२ पापप्रकृतिमओ छे.
हवे अपरावर्तमान प्रकृतिने कहे छे१५८. उच्छ्वासपराघातजिननामध्रुवबन्धनवकचतुदृष्टिज्ञाना
___ वरणविघ्नभयकुत्सामिथ्यात्वान्यपरावर्ताः ।
जे बीजी प्रकृतिनो बंध अथवा उदय निवारीने पोतानो बंध तथा उदय देखाडे ते परावर्तमान अने जे परनो बंध तथा उदय वार्या विना ज पोतानो बंध-उदर देखाडे ते अपरावर्तमान. तेमां अपरावर्तमान २९ प्रकृतिओ छे. ते आ प्रमाणे-उच्छ्वासनाम,पराघातनाम, जिन नाम, नामध्रुव धनवकवर्णचतुष्क, तैजसनाम, कार्मणनाम, अगुरुलघुनाम, निर्माण नाम अने उपघातनाम; दर्शनावरणीय ४, ज्ञानावरणीय ५, अंतराय ५, भयमोहनीय, दुगंछामोहनीय अने मिथ्यात्व ए २९ प्रकृतिओ अपरावर्तमान होय छे. बाकीनी प्रकृतिओ परावर्तमान जाणवी.
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हवे क्षेत्रविपाको प्रकृतिने कहे छे१५९. क्षेत्रे आनुपूर्व्यः ।
क्षेत्र-आकाश तेमा जे प्रकृतिनो विपाक-उदय होय ते क्षेत्रविपाकी ते चार छे. ते आ प्रमाणे-नरकानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी अने देवानुपूर्वी.
हवे जीवविपाकी प्रकृतिने कहे छे१६०. घातिगोत्रजिनत्रसेतरत्रिकसुभगेतरचतुष्कोच्छ्वास
गतिजातिगमा जीवे । ___जीवमां ज जे प्रकृतिको विपाक-उदय होय ते जीवविपाकी ते ७८ छे, ते आ प्रमाणे-घाती ४७, गोत्रद्विक, जिननाम, त्रसत्रिक, स्थावरत्रिक, सुभगचतुष्क, दुर्भगचतुष्क, श्वासोच्छ्वास, गति ४, जाति ५ अने गम-विहायोगति २ ए ७८ प्रकृतिओ जीवविपाकी छे.
हवे भवविपाकी प्रकृतिने कहे छ
१६१. भवे आयूंषि ।
भवमा जे प्रकृतिनो विपाक-उदय होय ते भवषिपाकी ते चार छे. ते आ प्रमाणे-नरकायुष्य, तिथंचायुज्य, मनुष्यायुष्य अने देवायुष्य.
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हवे पुद्गलविपाकी प्रकृतिने जणावे छे१६२. नामध्रुवोदयद्वादशकतनूपाङ्गाकृतिसंहननोपघातसाधा
रणेतरोद्योतातपपराघाताः पुद्गले । पुद्गलमा जे प्रकृतिनो विपाक-उदय होय ते पुद्गलविपाकी ते ३६ छे. ते आ प्रमाणे नामकर्मनी ध्रुवोदयी बार प्रकृति, शरीर ३, उपांग ३, संस्थान ६, संघयण ६, उपघातनाम, साधारण नाम. प्रत्येकनाम, उद्योत, आतप अने पराघात ३६ प्रकृतिओ पुद्गलत्रिपाकी जाणवी.
हवे मूलप्रकृतिमा भूयस्कारादिबंध जण वे छे१६३. अष्टसप्तपडेकवन्धे त्रित्रिचत्वारो भूयोऽल्पाव
स्थिताः । एकादि अधिक प्रकृतिनो बंध छते भूयस्कारनामनो बंध थाय, जेम-एक प्रकृतिने बांधतो होय अने पछी छ बांधे. छ बांधीने सात बांधे । एकादि प्रकृति बडे हीन बंध छते अल्पतर बंध थाय, जेम आठ प्रकृति बांध्या पछी सात बांधे अथवा सात बांध्या पछी छ बांधे । पूर्वे बांधतो होय तेटली ज प्रकृति ज्यां लगे बधेि ते अवस्थित बंध कहीए । सर्वथा अबंधक थइने फरी प्रकृति बांधवा मांडे त्यारे पहेले समये अवक्तव्य बंध कहीए । मूलप्रकृतिना आट, सात, छ अने एक प्रकृतिना बधस्थानमा त्रण भूयस्कार, त्रण अल्पतर अने चार अवस्थितबंध होय.
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પ૭
हवे उत्तरप्रकृतिमा भूयस्कारादिबंध जणावे छे१६४. दशे नवषट्चतुर्णा द्विद्वित्रिद्वाः सावक्तव्याः ।
दर्श-दर्शनावरणीयकर्मनी उत्तरप्रकृतिना नथ, छ अने चार प्रकृतिना बंधस्थानमां बे भूयस्कार, बे अल्पतर, त्रण अवस्थित अने बे अवक्तव्य बंध होय छे. १६५. मोहे द्व कविंशतिसप्तत्र्यधिकदशनवपञ्चचतुस्त्रियक
स्मिन् नवाष्टदशद्विकाः । मोहनीयकर्मनी २६ प्रकृतिने विषे बावीस, एकवीश, सत्तर, तेर, नव, पांच, चार, त्रण, बे अने एक एम १० बंधस्थानक छे, तेमां नव भूयकार, आठ अल्पतर, दश अवस्थित अने बे अवक्तव्यबंध होय छे. १६६. नाम्नि त्रिपश्चषडष्टनवाधिकविंशतित्रिंशत्सककस्मिन्
षट्सप्ताष्टत्रयः, शेषेष्वेककम् । नामकर्ममा २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ अने १ बंधस्थानक होय. तेमां भूयस्कार ६, अलपतर ७, अवस्थित ८ अने अवक्तव्य ३ होय बाकीना कर्मने विषे एकेक बंधस्थान होय.
स्थितिबंध हवे मूलकर्मनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहे छे१६७. स्थितिः ।
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आयुषस्त्रयस्त्रिंशत् सागराः । त्रिंशत् कोटाकोट्यः ज्ञानदर्शनघ्नवेद्यान्तरायाणाम् । सप्ततिमोहस्य ।
नामगोत्रयोविंशतिः । १. आयुष्यनी उत्कृष्टस्थिति ३३ सागरोपमनी छे.
२. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय अने अंतरायकर्मनी उत्कृष्टस्थिति ३० कोडाकोडी सागरोपमनी छे.
३. मोहनीयकर्मनी उत्कृष्टस्थिति ७० कोडाकोडी सागरोपमनी छे.
४. नाम अने गोत्रकर्मनी उत्कृष्टस्थिति २० कोडाकोडी सागरोपमनी छे.
हवे मूलकर्मनो जघन्यस्थितिषध कहे छे१६८. अपराष्टौ मुहूर्ताः ।
द्वादश वेद्ये।
शेषे भिन्नम् । नाम भने, गोत्रकर्मनी जघन्यस्थिति ८ मुहर्तनी छे. वेदनीयकर्मनी १२ मुहूर्तनी छे. बाकीना कर्मनी जघन्यस्थिति अंतमुहर्तनी छे.
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हवे उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहे छे१६९. कषाये विघ्नावरणासाते सूक्ष्मविकलत्रिके आध
संस्थानसंहननमृदुलघुस्निग्धोष्णसुरभिसितमधुरसुभगायुच्चसुरद्विकस्थिरषदकपुरुषरतिहास्ये चत्वा
रिंशत् त्रिंशदष्टादश दश परा।। १. कषाय १६ मां तथा २. अंतराय ५, आवरण-ज्ञानावरणीय ५ अने दर्शनावरणीय ९.असातावेदनीयमां तथा ३. सूक्ष्मत्रिकसूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, विकलत्रिक-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिद्रियमां तथा ४. आधसंस्थान,आद्यसंघयण,मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्णस्पर्श, सुरभिगध, सित-श्वतवर्ण, मधुररस; शुभ विहायोगति, उच्चगोत्र, देवद्विक, स्थिरषटक-स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय अने यश नाम, पुरुषवेद, रतिमोहनीय अने हास्यमोहनीयने विषे अनुक्रमे ४०, ३०, १८ अने १० कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति होय. १७०. शेषाकारसंहनने वर्णरसयोश्च द्विद्वयर्धवृद्धिः ।
बाकीना संस्थान अने संघयणने विषे तथा वर्ण अने रसमां बब्बेनी अने अढी अढी कोडाकोडी सागरोपभनी वृद्धि जाणवी ते आ प्रमाणे
१. समचतुरनसंस्थान अने वज्रऋभनाराच संघयणनी १० कोडाकोडी सागरोपम होय.
बब्बे कोडाकोडी सागरोपम वधारता
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६०
२. न्यग्रोधसंस्थान अने ऋषभनाराचसंघयणनी १२ कोव्सा० ३. सादिसंस्थान अने नाराचसंघयणनी १४ को० साo ४. कुजसंस्थान अने अर्धनाराचसंघयणनी १६ को० सा० ५. वामनसंस्थान अने कीलिकासंघयणनी १८ को० सा.. ६. हुडकसंस्थान अने छेवट्ठासंघयणनी २० को० सा०
१. श्वेतवर्ण अने मधुररसनी १० कोडाकोडी सागरोपम, अढी कोडाकोडी सागरोपम वधारतां
२. पीतवर्ण अने आम्लरसनी १२३ कोडाकोडी सागरोपम, ३. रक्तवर्ण अने कषायरसनी १५ कोडाकोडी सागरोपम, ४. नीलवर्ण अने कटुकरप्सनी १७३ कोडाकोडी सागरोपम,
५. कृष्णवर्ण अने तिकतरसनी २० कोड,कोडी सागरो. पमनी होय. १७१. मिथ्यात्वे सप्ततिः ।
मिथ्यात्वमा ७० कोडाकोड सागरोपम होय. १७२. नरद्विकस्त्रीसाते पञ्चदश ।
मनुष्यद्विक-मनुष्यगति अने मनुष्यानुपूर्वी, स्त्रीवेद अने सातावेदनीयमा १५ कोडाकोड सागरोपम होय. १७३. विंशतिः शेषे ।
बाकी-भयमोहनीय, जुगुप्सा, अरति, शोक, वैक्रिय द्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, नरकद्विक, मीचगोत्र, तैजसपंचक, अस्थिरषटक, त्रसचतुष्क, स्थावर, एकेंद्रियजाति, पंचेंद्रिय
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जाति, नपुंसकवेद, अशुभविहायोगति, श्वासचतुष्क, गुरु, कर्कश, रूक्ष, शीतस्पर्श अने दुर्गधमा २० कोडाकोडी सागरो. पम होय. १७४. जिनाहारकयोरेकान्तः।
जिननाम अने आहारकद्विकनी उत्कृष्टस्थिति अंतःकोडाकोडी सागरोपम छे. (जघन्यस्थिति संख्यातगुणहीन अंतःकोडाकोडी सागरोपम जाणवी) १७५. अबाधा भिन्नम् ।
जिननाम अने आहारकद्विकनो अबाधाकाल अंतर्मुहूर्तनो होय छे. १७६. तावद्वर्षशतान्यपरत्र ।
बीजी प्रकृतिओमा जेटला कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति होय तेटला सो वर्षनो अबाधाकाल होय. १७७. नरतिरश्चोरायुः पल्यत्रयम् । ___ मनुष्य अने तिर्यचना आयुष्यनी स्थिति उत्कृष्ट त्रण पल्योपम जाणवी. १७८. सुरनारकयोः परम् ।
देव अने नारकना आयुष्यनी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमनी जाणवी.
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६२
हवे आगामिभवा जेटलु बांधे ते कहे छे१७९. एकविकलेन्द्रियेऽमनसि च पूर्वकोटीपल्याऽसङ्ख्यांशौ । एकेंद्रिय अने विकलेंद्रिय पूर्वकोटीवर्धन आयुष्य अने असंज्ञीपंचेंद्रिय पल्योपमतो असंख्यातमो भाग बांधे. १८०. निरुपक्रमेतरयोः षण्मासभवत्र्यंशोऽबाधा ।
निरुपक्रम आयुष्यनो अबाधाकाल छ महिना अने इतरनोसोपक्रम - निरुपक्रप आयुष्यनो भवनो त्रीजो भाग अबाधाकाल जाणवो. देवता - नारकी अने युगलिक मनुष्य अने तिर्यच निरुपक्रम आयुवाला छे अने संख्यातवर्षना आयुवाला सोपक्रमी अने निरुपक्रमी बने प्रकारना होय छे.
हवे उत्तरप्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध कहे छे१८१. अन्त्यलोभज्ञानदर्शनघ्नविघ्ने यशउच्चे साते अन्त्यक्रोधमानमायासु पुंसि परा भिन्नाष्टद्वादशमुहूर्त्तद्वचेकमा सपक्षाष्टवर्षाणि ।
संज्वलन लोभ, ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४ अंत राय ५ ए १५ प्रकृतिमां अंतर्मुहूर्त्त तथा यशनाम अने उच्चगोत्रमां आठमुहूर्त तथा सातावेदनीयमा १२ मुहूर्त्त तथा संज्वलन क्रोधमानमायामां अनुक्रमे वे मास, एकमाल, अने एकपक्ष तथा पुरुषवेदमां आठ वर्ष जघन्य स्थितिबंध जाणवो.
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१८२. अपरा उत्कृष्टभक्तमिथ्यात्वशेषमेकेन्द्रियाणाम् ।
पल्यासङ्ख्यांशोना लघुः ।।
शेष बाकीनी (८५) प्रकृतिओनो उत्कृष्टस्थितिने मिथ्यात्वनी स्थिति वडे भागतां जे आवे ते (केंद्रियने विषे उत्कृष्ट स्थिति बंध जाणवो अने जघन्य स्थितिबंध पल्योपमना असंख्येयभगे ओछो जाणवो) आ प्रमाणे- 39 = ७० = 3, ७० : 53 = १, ४० * ७० = ४, १५ : ७० = ४, १८ : ७० =
च, १० : ७० = 1, १२ : ७० = च, १४ : ७० = x = , १६ : ७० = उच, २० : ७=3, १२ : ७० = ३४, १७३ : ७० =
१८३. द्वित्रिचतुरक्षासज्ञिनि पञ्चविंशतिपञ्चाशच्छतसह
स्रगुणिता । बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिद्रिय अने असज्ञिपंचेंद्रिय ने विषे अनुक्रमे पच्चीसगुणो, पच्चासगुणो,सोगुणो अने हजारगुणो उत्कृष्टस्थितिबध जाणवो अने जघन्यस्थितिबंध पल्योपमनो संख्यातमो भाग ओछो होय छे.
हवे ४ आयुष्यनो जघन्य स्थितिबंध कहे छे१८४. सुरनारकयोर्दशसहस्रसमाः शेषयोः क्षुल्लकः ।
देवायुष्य अने नारकायुष्यनो १० हजार वर्ष जघन्यस्थितिबध भने शेष-मनुष्यायुष्य अने तिर्यंचायुष्यनो क्षुल्लकभव जाणवो.
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१८५. भिन्नमबाधा ।
सर्वप्रकृतिओनो जघन्यस्थितिबंधने विषे अबाधाकाल अंतमुहूत होय.
हवे क्षुल्लकभवन स्वरूप कहे छे–' १८६. षोडशघनः मुहूर्ते क्षुल्लाः । _____एक मुहूर्तमा १६ नो घन एटले १६ ४ १६ = २५६ x १६ = ४०९६ ४ १६ = ६५५३६ क्षुल्लकभव थाय छे. १८७. षोडशवर्गावलिकाः (क्षुल्ले)।
एक क्षुल्लकभवमा १६ नो वर्ग एटले १६ ४ १६ = २५६ आवलिका थाय छे. १८८. सप्तत्रिंशच्छतत्रिसप्ततिः प्राणाः (मुहूत्ते) ।
एक मुहूत्त मां ३५७३ श्वासोच्छ्वास थाय छे.
हवे उत्कृष्टस्थिनिबंधना स्वामी कहे छे१८९. अविरतो जिनस्य पराम् ।
प्रिथ्यात्वाभिमुख अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य जिननाम कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बांधे छे. १९०. अप्रमत्त आहारकद्विकाऽमरायुषाम् ।
प्रमत्तभावाभिमुख अप्रमत्तयति आहारकद्विक अने देवायुष्यनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
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१९१. शेषाणां मिथ्यादृक् ।
बाकीनी ११६ प्रकृतिनी उष्कृष्टस्थिति मिथ्यादृष्टि बांधे छे.
१९२. विकलसूक्ष्माऽऽयुस्त्रिकसुर वैक्रियनरकद्विक तिर्यङ्नराः
मिथ्यात्व तिर्यच अने मनुष्य-विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक अने आयुष्यत्रिक, देवद्विक, वैक्रियद्विक अने नरकद्विकनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९३. एकाक्षस्थावरातपान् ईशानान्तः ।
ईशान देवलोक सुधीना देवो एकेंद्रियजाति, स्थावर अने आतपनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९४. तिर्यगौदारिकद्विकोद्योत सेवा सुरनारकाः ।
देवो अने नारको-तिर्यचद्विक, औदारिकद्विक, उद्योत अने छेवडुं संघयणनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९५. शेषाणां चतुर्गतिकाः ।
बाकीनी ९२ प्रकृतिओनी चारे गतिवाला मिथ्यात्वी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९६. आहारकजिनयोरपूर्वी ध्वम् ।
अपूर्वगुणस्थानवर्ती क्षपक - आहारकद्विक अने जिननामनी जघन्य स्थिति बांधे छे.
૫
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१९७. सज्वलनपुंसोरनिवृत्तिः ।
अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती क्षपक-संज्वलन कषाय ४ अने पुरुषवेदनी जघन्यस्थिति बांधे छे. १९८. सातयशउच्चाssवरणविघ्नानां सूक्ष्मः ।
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती क्षपक सातावेदनीय, यश:नाम, उच्चगोत्र, आवरण - ५ ज्ञानावरण ४ दर्शनावरण ए ९ अने ५ अंतरायनी एम १७ प्रकृतिनी जघन्यस्थिति बांधे छे. १९९. वैक्रियषट्कस्यासी ।
पर्याप्त असंशी पंचेंद्रिय तिर्यच वैक्रियषट्कनी जघन्यस्थिति बांघे छे.
२००. आयुषां सञ्ज्ञ्यपि ।
संज्ञी अने असंज्ञी पंचेंद्रिय चारे आयुष्यनी जघन्य स्थिति बांधे छे.
२०१. शेषाणां बादरपर्याप्तैकाक्षः ।
शेष - बाकीनी ८५ प्रकृतिनी बादर पर्याप्त एकेंद्रिय जघन्यस्थिति बांधे छे.
२०२. सादिध्रुवेतरोऽजघन्यः सप्तसु ।
सादिबंध, अनादिबंध, ध्रुवबंध अने अध्रुवबंध ए चार भांगा जाणवा अथवा उत्कृष्टबंध, जघन्यबंध, अनुत्कृष्टबंध अने अजघन्यबंध ए चार भांगा जाणवा. सात मूलप्रकृतिमां अजघन्यबंध सादि, अनादि, ध्रुव अने अध्रुव एम चार भेदे होय.
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२०३. साद्यध्रुवौ शेषत्रिके ।
सात मूलप्रकृतिना बाकीना-जघन्य, उत्कृष्ट अने अनुत्कृष्ट ए त्रण बंधमां सादि अने अध्रुव ए बे मेद होय छे. २०४. आयुष्षु ।
चारे आयुष्यमा उत्कृष्टादि ४ बधमां सादि अने अध्रुव ए बेज भांगा होय. २०५. सज्वलनावरणनवकविघ्नेऽजघन्यश्चतुर्धा । ___ संज्वलन ४, आवरण ९ अने अंतराय ५ मां अजघन्यस्थितिबंध-सादि, अनादि, ध्रुव अने अध्रुव एम चार मेदे होय. २०६. शेषत्रिके सायध्रुवौ ।
बाकीना त्रण-जघन्य, उत्कृष्ट अने अनुत्कृष्टबंधमां सादि अने अध्रुवबंध होय. २०७. शेषाणां चतुर्धा ।
बाकीनी १०२ प्रकृतिनो जघन्य आदि चार प्रकारनो बंध सादि अने अध्रुव छे.
हवे गुणठाणाने विषे स्थितिबध कहे छे-- २०८. द्वितीयादाऽऽष्टममन्तःकोटाकोटी ।
बीजा गुणस्थानथी आठमा गुणस्थान सुधी अंत:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ज स्थितिबंध होय.
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२०९. नोनो मिथ्यादक्सयभव्येतरे |
मिथ्यादृष्टि भव्य अने अभव्य संज्ञीमां अंतःकोडाकोडी सागरोपमथी ओछो बंध न होय.
हवे स्थितिबंध अल्पबहुत्व कहे छे२१०. यतौ बादरसूक्ष्मपर्याप्ताऽपर्याप्ते लघुः, सूक्ष्मेतरद्वये अपर्याप्तपर्याप्ते गुरुः, द्वयक्षद्वये लघ्वपर्याप्ततरे गुरुः, त्रिचतुरसङ्क्षिपु लघुगुरू, यतौ गुरुर्दे शे लघुगुरू, सुदृक्सज्ञिषु स्तोकाऽसङ्ख्याधिकसदुख्याधिक ७ - सङ्ख्याधिक ११ सङ्ख्यसख्यगुणम् ।
सूक्ष्म
यतिमां (मुनिमां) जघन्य स्थितिबंध थोडो बादर पर्याप्त एकेंद्रि यमां तेथी असंख्यातगुण, सूक्ष्मपर्याप्त पकेंद्रियमां तेथी विशेषाधिक; बादर अपर्याप्तमां तेथी विशेषाधिक, सूक्ष्म अपर्याप्तभां तेथी विशेषाधिक, सूक्ष्म अपर्याप्तमां उत्कृष्टस्थितिबंध तेथी विशेषाधिक, बादर अपर्याप्तमां थी विशेषाधिक, पर्याप्तमां तेथी विशेषाधिक, बादर पर्याप्तमां तेथी विशेषाधिक, बेइंद्रिय पर्याप्तमां जघन्यस्थितिबंध तेथी संख्यातगुण, बेइंद्रिय अपर्याप्तमां तेथी विशेषाधिक, बेइंद्रिय अपर्याप्तमां उत्कृष्ट स्थितिबंध तेथी विशेषाधिक, बेइंद्रियपर्याप्तमां तेथी विशेषाधिक, तेइंद्रियपर्याप्तमां जघन्य स्थितिबंध तेथी विशे
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'षाधिक,ते इंद्रियअपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक,तेइंद्रियअपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबध तेथी विशेषाधिक, ते इंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, चउरिद्रिय पर्याप्तमा जघन्यस्थितिबंध तेथी विशेषाधिक,चउरिंद्रियअपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक,चरिंद्रिय अपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबध तेथी विशेषाधिक, बउरिंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, असंज्ञिपंचेंद्रिय पर्याप्तमा जघन्यस्थितिबंध संख्यातगुण, असंज्ञिप चेंद्रिय अपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, असं ज्ञपंचेंद्रिय अपर्याप्तमा उत्कृष्ट स्थितिबंध तेथी विशेषाधिक, असंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, तेथी यतिमा उत्कृष्टस्थितिबंध संख्यातगुण, तेथी देशविर तिमां जघन्यस्थितिबंध अने उत्कृष्टस्थितिबध तथा अविरत सम्यग्दृष्टि अने संक्षिपंचेंद्रिय अपर्याप्त-पर्याप्तमां जघन्यस्थितिबध भने उत्कृष्टस्थितिबंध अनुक्रमे संख्यातगुण होय. २११. सङ्कलेशेन ज्येष्ठा विशुद्धेर पराऽनरामरतिर्यगाऽऽ
युषाम् । मनुष्य देव अने तिर्यचना आयुष्यने वजी ने बाकीनी सर्वकर्मप्रकृतिनी उत्कृष्टस्थिति तीव्र कषायना उदये बंधाथ अने अपरा-जघन्या विशुद्धि वडे बंधाय.
हवे योगर्नु अल्पबहुत्व कहे छे२१२. सूक्ष्मनिगोद-बादरविकलामनसमन-आद्यपर्याप्त
लवाद्यद्विकगुरुपर्याप्तलघुगुर्वपर्याप्तत्रसगुरु-पर्या
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प्तलघुगुर्वनुत्तरग्रैवेयकाकर्मनरतिय गाहारकनारकति
र्यङ्नरदेवगुरुरसङ्ख्येयध्नो योगः।। लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदनो आदि समये अल्पयोग होय तेथी अपर्याप्त बादर एकेंद्रिय विकलेंद्रिय-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रिय, असंज्ञिपंचेंद्रिय अने संज्ञिपचेंद्रियनो प्रथम समये जघन्ययोग अनुक्रमे असंख्यातगुण, तेथी आद्यद्विक-अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद अने बादर एकेंद्रियनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण, तेथी पर्याप्त सूक्ष्म निगोद अने बादर एकेंद्रियनो लघुगुरुजघन्ययोग अने उत्कृष्टयोग अनुक्रमे असंख्यातगुण, तेथी अपर्याप्त वस-बेद्रिय, तेइ द्रिय, चउरिद्रिय, असंज्ञिपंचेंद्रिय अने संशिपचे द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण, तेथी पर्याप्त त्रसनो जघन्य अने उत्कृष्टयोग अनुक्रमे असख्यातगुण, तेथी अनुत्तरवासीदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण,तेथी ग्रेवेयकदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण, तेथी अनुक्रमे अकर्म-युगलिक मनुष्य अने तिय चनो उत्कृष्ट योग, तेथी आहारकशरीरनो उत्कृष्टयोग, तेथी नारक, तिर्यंच मनुष्य अने शेषदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण होय छे.
हवे योगनी वृद्धि कहे छे२१३. अपर्याप्ते प्रतिक्षणमसङ्ख्यगुणवीर्यम् ।
अपर्याप्त जीवमा समये सप्रये असंख्षातगुण वीर्यवृद्धि होय छे. २१४. प्रतिस्थितिबन्धेऽसङ्ख्यलोकाः स तस्वध्यवसाया
अधिकाः।
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आयुषो ऽसङ्ख्यघ्नाः ।
एकेक स्थितिबंधमां असंख्यलोकाकाशना प्रदेश प्रमाण अध्यवसायो होय छे ते आयुष्यवर्जी ने खात कर्ममां दरेकस्थितिमां विशेषाधिक होय अने आयुष्यमां असं ख्यातगुण जाणवा.
हवे अनुभागबंध कहे छे
२१५. सङ्क्लेश विशुद्धिभ्यां तीव्रमन्दरसा अशुभाः ।
अशुभ प्रकृतिनो तीव्ररस संक्लेशवडे अने मंदरस विशुद्धि वडे बंधाय छे.
२२६. शुभा विपर्ययात् ।
शुभ प्रकृतिनो तीव्ररस विशुद्धि वडे अने मंदरस संक्लेश वडे बंधाय छे.
२१७. शिलामहीरजोजलरेखासमैः कषायैः सङ्क्लेशैश्चतुः स्थानादिर विघ्न देशघात्यावरणपुंसज्ज्वलने द्विस्थानादिदेश सर्व. चैक त्रिचतुः ।
पर्वत, पृथ्वी, धूल अने पाणीमां रेखासमान कषाय वडे अशुभ प्रकृतिनो अनुक्रमे चउठाणिओ ऋण ठाणिओचे ठाणिओ अने एक ठाणिओ रस बंधाय, शुभ प्रकृतिनो विपरीत पणे धूल, पृथ्वो अने पर्वतमां रेखा समान चउठाणिओ, त्रण ठाणिओ
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अने चे ठाणिो रस बंधाय, एक ठाणिओ रस होय नहिं. अंतराय ५, देशघाति आवरण-ज्ञानावरणीय ४, दर्शनावरणीय ३, पुरुषवेद अने सज्वलन कषाय ४ ए सत्तर प्रकृति बजी ने शेष प्रकृतिनो बे ठाणिओ विगेरे रस बंधाय. देशघाति प्रकृति २५ नो एक ठाणिओ रस बंधाय अने सर्वघाति प्रकृति २० नो त्रण-चार ठाणियो रस बंधाय.
हवे वर्गणा कहे छे२१८. औदारिकवैक्रियाहारकतैजसभाषाप्राणमनःकर्मणां
वर्गणाः ।
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, प्राणश्वासोच्छ्वास, मन अने कार्मण ए आठ वर्गणाओ छे. २१९. ध्रुवाध्रुवप्रत्येकबादरसूक्ष्ममहास्कन्धान्तरितशून्यचतु
क' च । ध्रुव, अध्रुव, ध्रुवशून्य, प्रत्येक, ध्रुवशून्य', बादर, ध्रुवशून्य', सूक्ष्म, ध्रुवशून्य, महास्कंध आ वर्गणाओ छे. २२०. अभव्यानन्तनाणुर्जघन्य औदारिकादिग्रहणे अन
न्तांश यावत् ग्रहण सर्वत्र । अभव्यथी अनंतगुण परमाणुवाला स्कंधो औदारिकादिने ग्रहणयोग्य वर्गणा थाय छे. त्यांथी सिद्धना अनंतभाग सुधी सर्व ठेकाणे ग्रहण योग्य रहे छे.
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२२१. कर्मणि जघन्यं सर्वजीवाऽभव्यानन्तघ्नरसप्रदेशम् ।
कर्मयोग्य दलिकमां जघन्थथी सर्वजीवथी अनंतगुण अने अभव्यथी अनंतगुण रस अने प्रदेश होय छे. सर्वजीवथी अनंतगुण रसवाला अने अभव्यथी अनंत गुण प्रदेशवाला कर्मस्कंधोने जीव ग्रहण करे छे. २२२. प्राग् भाषाया अष्टस्पर्शाः ।
भाषा वर्गणाथी पहेलानी औदारिकादि चार वर्गणा आठ स्पर्शवाली छे.
हवे कर्मग्रहण बाद आटे कर्मने केटलो भाग आवे ते कहे छे
__ बहेचण
२२३. यथास्थिति प्रदेशाधिक्यं वेद्ये विशेषेण ।
स्थिति प्रमाणे अर्थात् जेनी स्थिति ओछी होय तेने कर्मद लिक भागमा ओछी आवे अने जेनी स्थिति वधु होय तेने वधु भाग मले.
वेदनीयकर्मने सहुथी वधु भाग मले.
हवे उत्तर प्रकृतिना भाग कहे छे२२४. स्वानन्तशः सर्वघातिनाम् ।
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पोतानी मूलप्रकृतिने जे भाग प्राप्त थयो छे तेनो अनंतमो भाग सर्वघाति प्रकृतिने मले छे.
हवे गुणश्रेणि कहे छे२२५. सुदृग्देशसर्वविरतानन्तदर्शक्षपकोपशमकोपशान्त
क्षपकक्षीणमोहसयोगायोगा असङ्ख्यगुणनिजराः। सम्यग्दृष्टि, देशविरत, सर्वविरत, अनंतवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, चारित्रमोहोपशमक, उपशांतमोह, क्षपक, क्षीणमोह, सयोगी अने अयोगी. आ जीवो अनुक्रमे असंख्यातगुण निर्जरावाला होय छे.
हवे गुणस्थानचें अंतर कहे छे२२६. गुणेष्वन्तर्मुहूर्तार्धपुद्गलौ पराऽपरमन्तरम् ।
गुणस्थानोमा जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट अंतर अर्धपुद्गलपरावर्त. २२७. द्वितीये पल्याऽसङख्यांशो लघु ।
सास्वादनमां जघन्य अंतर पल्योपमनो असंख्यातमो भाग होय. २२८. मिथ्यात्वे षट्षष्टिद्वयं गुरु ।
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मिथ्यात्वमां उत्कृष्ट अंतर १३२ सागरोपमनुं होय
हवे पल्योपमनु स्वरूप कहे छे
२२९. बादरसूक्ष्मा उद्धाराऽद्धाक्षेत्रपल्योपमा योजनवृत्तपल्यसप्ताष्टकृत्वो ऽसङ्ख्यांशवालाग्रोद्धारे समयवर्ष - शतस्पृष्टाऽस्पृष्टखप्रदेशैः ।
पल्योपमना त्रण भेद - उद्धार, अद्धा अने क्षेत्र. ए त्रणना सूक्ष्म अने बादर एप छ भेद होय. चार गाउ लांबो पहोलो अने ऊंडो गोल पालो युगलियाना माथाना वालना एक स्वडना सात वार आठ आठ खंड करीने भरीए. तेमांथी समये समये एकेक खंड काढतां पालो खाली थाय त्यारे एक बादर उद्धार पल्योपम थाय. (आ कहेवा मात्र छे पनुं प्रयोजन नथी)
हवे ते बालना खंडने सो सो वर्षे काढतां ज्यारे खाली थाय त्यारे बादर अद्धा पल्योपम थाय. अने ते वालना खंडने स्पृष्ट जे आकाशप्रदेश ते समये समये एकेको अपहरतां स्पृष्ट प्रदेशने अपहरे त्यारे बादरक्षेत्र पल्योपम थाय. आ त्रण बादरपल्योपमनुं प्रयोजन नथी. हवे ते वालना खंडने असंख्यातखंड करीने भरीए अने तेमांथी समये समये एकेक खंड काढतां ज्यारे खाली थाय त्यारे सूक्ष्म उद्धार पल्योपम थाय. अने सो सो वर्षे काढतां ज्यारे खाली थाय त्यारे सूक्ष्म अद्धा पल्योपम थाय अने ते पालाने वालना खंड फरस्था
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अने अणफास्या जे आकाशप्रदेश ते साये समये अपहार करतां ज्यारे पालाना सर्वप्रदेश अपहरीए त्यारे सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम थाय. २३०. कोटाकोटीदशक सागरोपमे ।
दश कोडाकोङी पल्योपमनो एक सागरोपम थाय.
हवे पुद्गलपरावर्तन स्वरूप कहे छे२३१. औदारिकादिसप्ततदन्यतरसर्वाणुपरिणामलोक
प्रदेशकालचक्रसमयानुभागबन्धस्थानोत्क्रमक्रम' मरणैर्द्रव्यक्षेत्रकालभावपुद्गलपरावाः सूक्ष्मवादराः ।
एक जीव सर्व परमाणुने जेटला काले औदारिकादि सात पणे परिणमावीने मूके से टला काले बादर द्रव्ययुद्गलपरावर्त थाय. अने सातमांथी औदारिकादि कोइ पण एक शरीरपणे परिणमावीने जेटले काले मूके तेटला काले सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त थाय. लोकाकाशना सर्व प्रदेशो उत्क्रम-जेम तेम (क्रम वगर) मरण वडे जेटले काले स्पर्श कराय त्यारे बादर क्षेत्रपुद्गलपरावत अने क्रमथी मरण वडे जेटलें काले स्पर्श कराय त्यारे सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गलपरावत थाय. कालचक्र-उत्सर्षिणी अवसर्पिणीना समयो क्रम वगर मरण वडे जेटले काले स्पर्श कराय त्यारे बादरकालपुद्गलपरावर्त अने क्रम वडे स्पर्श कराय त्यारे सूक्ष्मकालपुद्गलपरावर्त थाय. अनुभागबंध-रसबंधना स्थानो क्रम वगर मरण वडे जेटले काले स्पर्श कराय
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त्यारे बादरभावपुद्गलपरावर्त अने क्रम वडे स्पर्श कराय त्यारे सूक्ष्मभावपुद्गलपरावत थाय.
हबे प्रदेश धना भांगा कहे छे२३२. अक्लिष्टनिद्रदर्शनभयकुत्साद्वितीयतृतीयतुर्यकषाय
विघ्नज्ञानघ्नानाममोहायुषामनुत्कृष्टश्चतुर्धा शेषे
द्विधा प्रदेशे।
अक्लिष्ट निद्रदर्शन-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला अने स्त्या. नर्द्धि ए त्रण क्लिष्टनिद्रा सिवाय बाकीनी दर्शनावरणीय ६, भय, दुगंछा बीजा-अप्रत्याख्यानीय ४, त्रीजा-प्रत्याख्यानीय ४, चोथा-संज्वलन ४ कषाय, अंसराय ५, अो ज्ञानावरणीय ५, ए त्रीस (३०) उत्तर प्रकृतिओने तेषज मोहनीय अने आयुष्य वर्जीने ६ मूल प्रकृतिनो अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चार प्रकारे (सादि, अनादि, ध्रुव अने अध्रुव) जाणवो. शेष-बाकीना त्रण प्रकारना प्रदेशब धमां तेमज शेष सर्वप्रकृतिना सर्वप्रकारना प्रदेशबंधमां बे भेदे (सादि अने अध्रुव) बंध होय.
हवे योगस्थान आदिनु अल्पबहुत्व कहे छ२३३. योगप्रकृतिस्थितितदध्यवसायानुभागकर्मप्रदेशरसाः
श्रेण्यस ख्यांशासङ्ख्यघ्नचतुरनन्तगुणाः । श्रेणिना असंख्यातमा भागमा जेटला आकाशप्रदेश होय तेटला योगस्थानो छे. तेथी प्रकृति भेदो, स्थिति भेदो,
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स्थितिबंधना अध्यवस्थानो भने रसबंधना अध्यवस्थानो ए चार अनुक्रमे असंख्यातगुणा छे, तेथी कर्म प्रदेशो अनंतगुणा अने ते करतां रसना छेदो अनंतगुणा छे.
हवे श्रेणि, प्रतर अने घननु स्वरूप कहे छे२३४. सप्तरज्ज्वकैकप्रदेशतद्वर्गवर्गाः श्रेणिप्रतरघनाः ।
घनीकृत सात राज प्रमाण लोकनी लांबी एक प्रदेशनी श्रेणि ते सूची-श्रेणि अने तेनो वर्ग प्रतर अने तेनो वर्ग घन जाणवो. २x२ = ४, ४४४ = १६.
हवे उपशमश्रेणि कहे छे२३५. अनदर्शननपुंसकस्त्री वेदहास्यादिषट्पुवेदाननन्तस
दृद्विकैकान्तरितानामुपशमः । उपशमणि करनार प्रथम अन-अनंतानुबंधी चार कषायनो उपशम करे, ते पछी दर्शन-त्रण दर्शनमोहनीयनो, ते पछी नपुंसकवेदनो, ते पछी स्त्रीवेदनो ते पछी हास्यादि. षटकनो, ते पछी अननंत-अप्रत्याख्यानीय अने प्रत्याख्यानीय बब्बे क्रोधादिनो अने संज्वलनकषायनो आंतरे उपशम करे छे.
हवे क्षपकश्रेणि कहे छे२३६. अनमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वन्यायुरेकविकलाक्षस्त्या
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नद्धित्रिकोद्योततियङ्नरकस्थावरद्विकसाधारणातपाप्टकषायनपुंस्त्रीहास्यादिपुंसज्वलननिद्राद्वयविघ्नावरण
क्षयः क्षपके । क्षपकश्रेणि करनार, प्रथम चार अनंतानुबधिकषायनो क्षय करे. पछी मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अने समकितमोहनीय ए त्रणनो अनुक्रमे क्षय करे, पछी त्रण आयुष्यनो पछी एकेंद्रिय, विकलें द्रिय, थिणद्धित्रिक, उद्योत नाम, तिर्यच. द्विक, नरकद्विक, स्थावरद्विक, साधारणनाम अने भातपनाम ए सोलनो क्षय करे पछी आठ कषायनो क्षय करे पछी नपुंसकवेद अने ते पछी स्त्रीवेदनो क्षय करे, ते पछी हास्यादिपटकनो ते पछी पुरुषवेदनो ते पछी संज्वलन चार कषायनो अनुक्रमे, ते पछी बे निद्रानो ते पछी अंतराय ५, ज्ञानावरणीय ५ अने दर्शनावरणीय ४ ए १४ नो क्षय करे. २३७. कार्याभ्यासादिकृतवैषम्यं वीर्यविघ्नघातज वीर्यम् ।
कार्यनी निकटता आदि वडे कयु छे जीवप्रदेशोन विषमपणु जेमां एवा वीर्यातरांयना नाशथी थनार योग ते वीर्य छे. २३८. असङ्ख्यलोकसमं प्रदेशेऽपरम्परमपि ।
एकेक प्रदेशे वीना अविभागो मसंख्यात लोकाकाशना प्रदेश प्रमाण होय छे.
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२३९. अनन्ताऽसङ्ख्य सङ्ख्यगुणभागेषु सर्व जीवाऽसङ्ख्यलोकखांशोत्कृष्ट सङ्ख्याः ।
अनंत गुण अने भागमां सर्वजीव, असंख्य गुण अने भागमां असंख्य लोकाकाशना प्रदेशो अने संख्य गुण अने भागमां उत्कृष्ट संख्या ग्रहण करवी.
२४०. बन्धनसङ्क्रमोद्वर्त्तनाऽपवर्त्तनोदीरणोपशमनानिधत्तनिकाचनानि करणानि ।
बंधन, संक्रमण, उद्वर्त्तना, उदीरणा, उपशमना, निधत्त अने निकाचन ए आठ करण छे.
२४१. बद्धबद्ध्यमानानां बद्धमाने सङ्क्रमः ।
बंधाएली अने बंधाती प्रकृतिनो बंधातीमां संक्रम थाय. २४२. यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तयः करणान्यात्मपरिणामाः ।
यथाप्रवृत्त अपूर्व अने अनिवृत्ति ए त्रण करण छे. करण एटले आत्मानो परिणाम.
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