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________________ ते नव वैक्रियद्विक सहित अगियार योग. यथाख्यातचारित्रमा तेज नव योग, कार्मण अने औदारिकमिश्रयोगसहित अगियार योग होय. हवे मार्गणास्थानोमा उपयोग कहे छे६६. सुरतियग्नरकायते सयोगवेदशुक्लाहारनरपञ्चेन्द्रिय सज्ञिभव्ये चक्षुरचक्षुले श्यापश्चककषाये चतुरक्षासज्ञिनि एकद्वित्र्यक्षस्थावरे त्र्यज्ञानाभव्यमिथ्यात्वसास्वादने केवलद्विके क्षायिकयथाख्याते देशे मिश्रेऽनाहारे ज्ञानसंयमचतुष्कोपशमवेदकावधिदर्शनेऽमनः केवलद्विक-सर्वाऽकेवलद्विका - ज्ञानदर्शनद्विकाऽचक्षुस्त्र्यज्ञानदर्शनद्वय-स्वद्विका-नज्ञानत्रिक-दर्शनज्ञानत्रिकसाज्ञानाऽचक्षुर्मनोज्ञानज्ञानचतुष्कदर्शनत्रिका उपयोगाः। देषगति, तिर्यचगति, नरकगति अने अविरतमा मनःपर्याय अने केवलद्विक-केवलज्ञान अने केवलदर्शन विना नव उपयोग. त्रसकाय, योग-मन, वचन अने काया वेद-स्त्री, पुरुष अने नपुंसक, शुक्ललेश्या, आहार, मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, संज्ञी अने भव्यमां बार उपयोग. चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, कृष्णादि पांच लेश्या अने क्रोध आदि चार कषायमां केवलद्विकविना दश उपयोग. चउरिद्रिय अने असंशिमां बे अज्ञान. मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान अने बे दर्शन-चक्षुदर्शन अने
SR No.022252
Book TitleKarmarth Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1973
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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