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________________ ७० प्तलघुगुर्वनुत्तरग्रैवेयकाकर्मनरतिय गाहारकनारकति र्यङ्नरदेवगुरुरसङ्ख्येयध्नो योगः।। लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदनो आदि समये अल्पयोग होय तेथी अपर्याप्त बादर एकेंद्रिय विकलेंद्रिय-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रिय, असंज्ञिपंचेंद्रिय अने संज्ञिपचेंद्रियनो प्रथम समये जघन्ययोग अनुक्रमे असंख्यातगुण, तेथी आद्यद्विक-अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद अने बादर एकेंद्रियनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण, तेथी पर्याप्त सूक्ष्म निगोद अने बादर एकेंद्रियनो लघुगुरुजघन्ययोग अने उत्कृष्टयोग अनुक्रमे असंख्यातगुण, तेथी अपर्याप्त वस-बेद्रिय, तेइ द्रिय, चउरिद्रिय, असंज्ञिपंचेंद्रिय अने संशिपचे द्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण, तेथी पर्याप्त त्रसनो जघन्य अने उत्कृष्टयोग अनुक्रमे असख्यातगुण, तेथी अनुत्तरवासीदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण,तेथी ग्रेवेयकदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण, तेथी अनुक्रमे अकर्म-युगलिक मनुष्य अने तिय चनो उत्कृष्ट योग, तेथी आहारकशरीरनो उत्कृष्टयोग, तेथी नारक, तिर्यंच मनुष्य अने शेषदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण होय छे. हवे योगनी वृद्धि कहे छे२१३. अपर्याप्ते प्रतिक्षणमसङ्ख्यगुणवीर्यम् । अपर्याप्त जीवमा समये सप्रये असंख्षातगुण वीर्यवृद्धि होय छे. २१४. प्रतिस्थितिबन्धेऽसङ्ख्यलोकाः स तस्वध्यवसाया अधिकाः।
SR No.022252
Book TitleKarmarth Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1973
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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