Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala
View full book text
________________
૫
१९१. शेषाणां मिथ्यादृक् ।
बाकीनी ११६ प्रकृतिनी उष्कृष्टस्थिति मिथ्यादृष्टि बांधे छे.
१९२. विकलसूक्ष्माऽऽयुस्त्रिकसुर वैक्रियनरकद्विक तिर्यङ्नराः
मिथ्यात्व तिर्यच अने मनुष्य-विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक अने आयुष्यत्रिक, देवद्विक, वैक्रियद्विक अने नरकद्विकनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९३. एकाक्षस्थावरातपान् ईशानान्तः ।
ईशान देवलोक सुधीना देवो एकेंद्रियजाति, स्थावर अने आतपनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९४. तिर्यगौदारिकद्विकोद्योत सेवा सुरनारकाः ।
देवो अने नारको-तिर्यचद्विक, औदारिकद्विक, उद्योत अने छेवडुं संघयणनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९५. शेषाणां चतुर्गतिकाः ।
बाकीनी ९२ प्रकृतिओनी चारे गतिवाला मिथ्यात्वी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे.
१९६. आहारकजिनयोरपूर्वी ध्वम् ।
अपूर्वगुणस्थानवर्ती क्षपक - आहारकद्विक अने जिननामनी जघन्य स्थिति बांधे छे.
૫

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98