Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 50
________________ 33 ९५. नरद्विकोच्चौ मिथ्यात्वे । मिथ्यात्वगुणस्थानमां मनुष्यद्विक अने उच्चगोत्र ए न बंधाय तेथी प्रण विना ९६ नो बंध होय । ९६. तिर्यगायुर्नपुंश्चतुष्कं सास्वादने । सास्वादन गुणस्थानमा तिर्यचन आयुष्य अने नपुंचतुष्क-नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुडसंस्थान अने छेवट्ठ संघयण न बंधाय तेथी ए पांच विना ९१ बंधाय । ९७. अनन्तचतुर्विशतिमिश्रद्विके सनरद्विकोच्चः ।। __ मिश्र भने अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमा अनंतानुबधि आदि चोवीस प्रकृति विना-अनंतानुबंधिचतुष्क, मध्यमसंस्थान ४, मध्यमसंघयण ४. अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दौर्भाग्यत्रिक, थीणद्धित्रिक, उद्योत अने तिर्यचद्विक विना नरद्विक अने उच्चगोत्रसहित ७० प्रकृति बंधाय । हवे तिर्यचगतिमां बंध कहे छे९८. तिरश्चि पर्याप्तोऽनरकषोडशकः सास्वादने । __तिर्यंचगतिमां पर्याप्तातिर्य चने (ओधे अने मिथ्यात्वे जिननाम अने आहारकद्विक विना ११७ नो बंध होय) सास्वादनमां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक; एकेंद्रिय, स्थावर, आतप, नपुंसकवेद, मिथ्यान्व, हुड अने छेवटुं ए सोल प्रकृति विना १०१ प्रकृतिनो बध होब ।

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