Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 45
________________ २८ नाम अने आहारकद्विक वर्जी शेष प्रकृतिओना बंधना हेतुओ छे. जिननाम अने आहारकद्विक समकित अने संयमथी बंघाब छे माटे एनुं वर्जन करें. ८५. न सम्यक्त्वमिश्रबन्धन सङ्घातानाम् । समतिमोहनीय अने मिश्रमोहनीयनो बंध होतो नथी. बंधननो अने संघातननो औदारिक आदि शरीरमां समावेश थतो होवाथी ए प्रकृतिओ बंधमां ग्रहण करी नथी. ८६. कृष्णादिविंशतौ वर्णगन्धरसस्पर्शाः । कृष्णवर्णनाम आदि वीस प्रकृतिओमांथी वर्णनाम, रसनाम, गंध नाम अने स्पर्शनाम ए चार प्रकृतिओ बंधमां गणवानी छे. हवे गुणस्थानोमां प्रकृतिबंध जणावे छे८७. अजिनाहारकद्विको - ऽनरकत्रिकजातिस्थावर चतुष्क हुण्डातपसेवार्तनपुंसकमिथ्यात्वो ऽतिर्यक्स्त्यानद्धि - दौर्भाग्यत्रिकानन्तकषायमध्यसंस्थानसंहननचतुष्क नीचोद्योताशुभगमस्त्र्यायुर्द्विकः सतीर्थायुर्द्विको वज्रनरत्रिकाप्रत्याख्यानौदारिकद्विको ऽप्रत्याख्यानावरणोSशोकारत्यस्थिरद्विकायशोऽसातः साहारकद्विको-सु रायुष्काद्याऽनिद्राद्विकषडसुरद्विकपञ्चेन्द्रियशुभगमत्रसaar saौदारि कतनूपाङ्गसम निर्माणजिनवर्णागुरुल

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