Book Title: Kalpniryukti
Author(s): Bhadrabahusuri, Manikyashekharsuri, Vairagyarativijay
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 19
________________ 18 । कारणवश चातुर्मास के पहले और बाद मासकल्प करने पर छह महिने तक स्थिरता सम्भव होती है । 44 भाद्रपद शुक्ला पंचमी से चातुर्मास स्थापना नियत होती है इसलिये यह तिथि महत्व रखती है । इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि, आ. श्री कालिकसू. ने सांवत्सरिक पर्युषण पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमी से परिवर्तित कर भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी में नियत किया । आ. श्री कालिकसू. ने उज्जयिनी के राजा बलमित्र और भानुमित्र के भांजे को दीक्षा दी । इससे राजा कुपित हुए और आ. श्री कालिकसू. को देश से निकाल दिया । आ. श्री कालिकसू. प्रतिष्ठानपुर(पैठण) आये । वहाँ पर शालिवाहन शक संवत्सर प्रवर्तक ?) राज्य करता था । वह श्रावक था । यद्यपि उसका अन्त: पुर जैन नहीं था, फिर भी राजा ने श्रमणावसर चालू किया था । जिससे अष्टमी आदि को उपवास करके साधुओं का भिक्षा लाभ लेता था । पर्युषण पर्व नजदीक आने पर आ. श्री कालिकसू. ने राजा को भाद्रपद शुक्ला पंचमी का महत्त्व बतलाया। राजा ने कहा, 'उस दिन मुझे इन्द्र की अनुज्ञा लेनी पड़ती है इसलिये सांवत्सरिक पर्युषण पर्व षष्ठी के दिन रखा जाय ।" आ. श्री कालिकसू. ने कहा, ' भाद्रपद शुक्ला पंचमी की रात्रि का उल्लंघन नहीं हो सकता ।" राजा ने कहा, "तो चतुर्थी के दिन रखो।" आ. श्री कालिकसू. ने इस बात को स्वीकार किया । इस तरह यह पर्व चतुर्थी के दिन नियत हुआ । १ उत्सर्ग से चातुर्मास में विहार निषिद्ध है । अपवाद से अनिवार्य स्थिति में विहार अनुमत है | जिसके कारण इस प्रकार है । जहाँ स्थण्डिलभूमि न हो, संस्तारक मिलता न हो, वसति जीवाकुल हो, जहाँ भिक्षा दुर्लभ हो, राजा साधु का द्वेषी बन जाय, उपाश्रय में सर्प का उपद्रव हो, उपाश्रय को आग लग जाय, दूसरे गाँव में कोई साधु बीमार हो चातुर्मास में भी विहार हो सकता है । उत्सर्ग से चातुर्मास के बाद उस जगह पर रहना निषिद्ध है । लेकिन मेघ बरसने के बाद भी विराम नहीं ले रही हो, रास्ते दुर्गम हों और कीचड़ से भरे हों तो उस जगह पर रहना अनुमत है । २ 44 चातुर्मास में जिस जगह अवस्थान हो वहाँ से छह दिशा में एक योजन और एक कोस तक गमनागमन की अनुमति है । गमनागमन की सम्भावना ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशा में है । गाँव यदि पर्वत पर हो तो ऊर्ध्व और अधो दिशा में गमन हो सकता है । ३ चातुर्मास में द्रव्यस्थापना के ग्रहण धारणा और त्याग के सम्बन्ध में सात द्वारों से विचार किया जाता है । १. आहार, २. विगई, ३. संस्तारक, ४. मात्रक, ५. लोच, ६. सचित्त, ७. अचित्त । १. आहार – चातुर्मास में ग्रीष्मादि ऋतु में लिये जाने वाले आहार का त्याग होता है । शक्ति अनुसार योग में और तप में वृद्धि होती है I १. सन्दर्भ - क. नि. १४ - १६ । २. सन्दर्भ - क.नि. १७-२३ । ३. सन्दर्भ - क.नि. २४-२७ ।

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