Book Title: Kalpniryukti
Author(s): Bhadrabahusuri, Manikyashekharsuri, Vairagyarativijay
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 126
________________ परिशिष्ट-७ १०१ पड़ा। उसमें प्रविष्ट होने पर आश्रम दिखाई पड़ा । आश्रम के द्वार पर राजा को ऐसा आभास हुआ की मानो कोई कह रहा है, "यह राजा अकेले ही आया है। इसका वध कर इसके समस्त अलङ्कार ग्रहण कर लो ।" भयभीत राजा पीछे हटने लगा । तपस्वी भी चिल्लाया, "दौड़ो-दौड़ो, यह भाग रहा है, इसे पकड़ो।" तब सभी तपस्वी हाथ में कमण्डल लेकर 'मारो-मारो, पकड़ोपकड़ो' कहते हुए दौड़े । राजा भागने लगा। भयभीत होकर भागते हुए राजा को एक विशाल वनखण्ड दिखाई पड़ा । उसमें मनुष्यों का स्वर सुनाई पड़ा । उस वनखण्ड में प्रवेश करने पर राजा ने चन्द्र के समान सौम्य, कामदेव के समान सौन्दर्ययुक्त, बृहस्पति के समान सर्वशास्त्र विशारद, बहुत से श्रमणों, श्रावकों, श्राविकाओं के समक्ष, धर्म का प्रवचन करते हुए एक श्रमण को देखा । राजा 'शरण-शरण' चिल्लाते हुए वहाँ गया । श्रमण ने कहा, "भयभीत मत हो ! छोड़ दिये गये ।" यह कहते हुए तपस्वी भी चला गया, राजा भी आश्वस्त हो गया । श्रमण से धर्म प्रवचन सुनकर राजा ने जिन धर्म स्वीकार कर लिया । परन्तु यथार्थ में राजा अपने सिंहासन पर ही बैठा था, वह कहीं गया ही नहीं था । उसने सोचा, 'यह क्या है ?' आकाशस्थित (प्रभावती) देव ने बताया, 'यह सब (चमत्कार) मैंने तुझे प्रतिबोध देने के लिए किया था । तुम्हारा धर्म निर्विघ्न हो !' यह कहकर देव अन्तर्ध्यान हो गये। समस्त नगरवासियों के मध्य घोषणा हुई, वीतिभय नगर में देव द्वारा अवतीर्ण प्रतिमा है । ___गान्धार जनपदवासी एक श्रावक ने सङ्कल्प किया कि, 'सभी तीर्थङ्करों के पञ्चकल्याणकोंजन्म, निष्क्रमण, कैवल्यप्राप्ति, निर्वाणभूमियों आदि का दर्शन करने के पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा।' यात्रा के दौरान उसने वैताढ्य गिरि की गुफा में वर्तमान ऋषभादि तीर्थङ्करों की रत्ननिर्मित स्वर्ण-प्रतिमाओं के विषय में एक साधु के मुख से सुना । अतः दर्शन की इच्छा से वहाँ गया। स्तव एवं स्तुतियों से स्तवन करते हुए, अहोरात्र निवास करते हुए उसके मन में रत्नों के प्रति थोड़ा भी लोभ नहीं हुआ। उसके निर्लोभ से तुष्ट हो प्रत्यक्ष होकर देव ने उससे वर माँगने के लिए कहा । तब श्रावक ने कहा, "भोग से निवृत्त मुझे वरदान से क्या प्रयोजन ?" _ 'मोघरहित देवत्व का दर्शन है", यह कहकर देवता ने यथाचिन्तित मनोरथों को पूर्ण करने वाली आठ सौ गुलिकायें प्रदान की। फिर श्रावक वीतिभय नगर में विद्यमान देव द्वारा अवतारित समस्त अलङ्कारों से विभूषित प्रतिमा के विषय में सुनकर, उसके दर्शनार्थ वहाँ गया। प्रतिमाराधन के लिए कुछ दिन तक मन्दिर में रुका और बीमार पड़ गया । 'प्रव्रज्याभिलाषी मेरे लिए ये गुलिकायें निष्प्रयोजन हैं,' यह सोचकर उसने गुलिकायें मन्दिर की दासी कृष्णगुलिका को दे दी और वहाँ से प्रस्थान किया। - कृष्णगुलिका ने गुलिकाओं की शक्ति-परीक्षा के लिए यह सङ्कल्प कर एक गुलिका खा

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