Book Title: Kalpniryukti
Author(s): Bhadrabahusuri, Manikyashekharsuri, Vairagyarativijay
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 132
________________ परिशिष्ट-७ १०७ कथा-सारांश१६ पाण्डुरार्या नामक एक शिथिलाचारिणी साध्वी थी । वह पीत संवलित शुक्ल वस्त्रों से सदा सुसज्जित रहती थी। इसलिए लोग उसे पाण्डुरार्या नाम से जानते थे । उसे विद्यासिद्ध थी और वह बहुत से मन्त्रों को जानने वाली थी । लोग उसके समक्ष करबद्ध सिर झुकाये बैठे रहते थे। उसने आचार्य से भक्तप्रत्याख्यान कराने के लिए कहा । तब गुरु ने सब प्रत्याख्यान करा दिया। भक्तप्रत्याख्यान करने पर वह अकेली बैठी रहती थी। उसके दर्शनार्थ कोई नहीं आता था । तब उसने विद्या द्वारा लोगों का आह्वान किया। लोगों ने पुष्प-गन्धादि लेकर उसके पास आना आरम्भ कर दिया । श्रावक-श्राविका वर्ग से पूछा गया कि, "क्या उन्हें बुलाया गया है ? "लोगों ने अस्वीकार किया। पूछने पर वह बोली, "मेरी विद्या का चमत्कार है।" आचार्य ने कहा, "त्याग करो ! उसके द्वारा चामत्कारिक कार्य छोड़ने पर लोगों ने आना छोड़ दिया। आर्या पुनः एकाकिनी हो गई । तब चमत्कार द्वारा पुनः बुलाना आरम्भ किया । आचार्य द्वारा पूछने पर वह बोली कि, "लोग पूर्व अभ्यास के कारण आते हैं । इस प्रकार बिना आलोचना किये ही मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्म कल्प में ऐरावत की अग्रमहिषी उत्पन्न हुई वह भगवान् महावीर के समवसरण में हस्तिनी का रूप धारण कर आई है ।" कथा के अन्त में उच्चस्वर से शब्द की है। भगवान् ने पूर्वभव कहा। इसलिए कोई भी साधु अथवा साध्वी ऐसी दुरन्ता माया न करे । ७. लोभ कषाय विषयक आर्यमङ्ग दृष्टान्त महुरा मंगू आगम बहुसुय वेरग्ग सड्ढपूया य । सातादिलोभ णितिए, मरणे जीहा य णिद्धमणे ॥११०॥ (द०नि० ।१७) कथा-सारांश१८ बहुश्रुत आगमों के अध्येता, बहुशिष्य परिवार वाले, उद्यत विहारी आचार्य आर्यमङ्ग विहार करते हुए मथुरा नगरी गये । वस्त्रादि से श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा की गई । क्षीर, दधि, घृत, गुड़ आदि द्वारा उन्हें प्रतिदिन यथेच्छ प्रतिलाभना प्राप्त होती थी । सातासुख से प्रतिबद्ध हो विहार नहीं करने से उनकी निन्दा होने लगी। शेष साधु विहार किये । मङ्ग आलोचना और प्रतिक्रमण न कर श्रामण्य की विराधना करते हुए मरकर अधर्मी व्यन्तर यक्ष के रूप में उत्पन्न हुए । उस क्षेत्र से जब साधु निकलते और प्रवेश करते थे तब वह यक्ष, यक्षप्रतिमा में प्रवेशकर दीर्घ आकार १६. द०चू०, पूर्वोक्त, पृ० ६२ एवं नि०भा०चू०, पूर्वोक्त, पृ० १५१-१५२ । १७. द०चू०, पूर्वोक्त, पृ० ४८६ । १८. द०चू०, पूर्वोक्त, पृ० ६२ एवं नि०भा०चू०, पूर्वोक्त, पृ० १५२-१५३ ।

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