Book Title: Kalpniryukti
Author(s): Bhadrabahusuri, Manikyashekharsuri, Vairagyarativijay
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 131
________________ कल्पनिर्युक्तिः वह अत्यन्त रूपवती थी । बहुत से वणिक्परिवारों ने उसका वरण करना चाहा । धनश्रेष्ठि उनसे कहता था कि, “जो इसे इच्छानुसार कार्य करने से मना नहीं करेगा, उसे ही यह दी जायेगी", इस प्रकार वह वरण करने वालों का प्रस्ताव अस्वीकार कर देता । १०६ अन्त में एक मन्त्री ने भट्टा का वरण किया । धन ने उससे कहा, "यदि अपराध करने पर भी मना नहीं करोगे, तब दूँगा ।” मन्त्री द्वारा शर्त मान लेने पर भट्टा उसे प्रदान कर दी गई । कुछ भी करने पर वह उसे रोकता नहीं था । वह अमात्य राजकार्यवश विलम्ब से घर लौटता था, इससे भट्टा प्रतिदिन रुष्ट होती थी । तब वह समय से घर आने लगा । राजा को दूसरों से ज्ञात हुआ कि, यह पत्नी की आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं करता है । एक दिन आवश्यक कार्यवश राजा ने रोक लिया । अनिच्छा होते हुए भी उसे रुकना पड़ा। अत्यन्त रुष्ट हो भट्टा ने दरवाजा बन्द कर लिया । घर आकर अमात्य ने दरवाजा खुलवाने का बहुत प्रयास किया फिर भी जब भट्टा दरवाजा नहीं खोला तब मन्त्री ने कहा, "तुम ही स्वामिनी बनो! मैं जाता हूँ ।" रुष्ट हो वह द्वार खोलकर पिता के घर की ओर चल पड़ी । सब अलङ्कारों से विभूषित होने के कारण चोरों ने रास्ते में पकड़कर उसके सब अलङ्कार लूट लिये और उसे सेनापति के पास लाये। सेनापति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा पर वह उसे नहीं चाहती थी । उसने बलपूर्वक भोग नहीं किया, और उसे जलूक वैद्य के हाथ बेच दिया । वैद्य ने भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा । भट्टा उसकी भी पत्नी बनने के लिए सहमत नहीं हुई । भट्टा क्रोध में जलूक के प्रतिकूल वचन बोलती और उसकी इच्छा के विपरीत कार्य करती थी । वह शीलभङ्ग नहीं करना चाहता था । भट्टा रक्तस्राव के कारण कुरूप हो गई। इधर उसका भाई कार्यवश वहाँ आया और धन देकर उसे छुड़ा लाया। वमन और विरेचन द्वारा पुनः उसे रूपवती बनाकर मन्त्री के पास भेजा । स्वीकार कर अमात्य ने उसे घर लाया । भट्टा ने क्रोध पुरस्सर मान का दोष देखकर अभिग्रह किया मैं मान अथवा क्रोध कभी नहीं करूँगी । ६. माया कषाय विषयक पाण्डुरार्या दृष्टान्त पासत्थि पंडरज्जा परिण्ण गुरुमूल णाय अभिओगा । पुच्छति च पडिक्कमणे पुव्वब्भासा चउत्थम्मि ॥ १०८ ॥ अपडिक्कम्म सोहम्मे अभिओगा देवि सक्कतोसरणं । हत्थिणि वायणिसग्गो गोतमपुच्छा य वागरणं ॥ १०९ ॥ - दशा० नि०१५ I १५. द०चू०, पूर्वोक्त, पृ० ४८६ ।

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