Book Title: Kalpniryukti
Author(s): Bhadrabahusuri, Manikyashekharsuri, Vairagyarativijay
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 128
________________ परिशिष्ट-७ १०३ वापस भेज दो !' चण्डप्रद्योत की ओर से सकारात्मक उत्तर न मिलने पर उदायन ने समस्त साधनों एवं सेनाओं के साथ प्रस्थान किया । ग्रीष्म का समय होने से मरु जनपद में यात्रा करते हुए जलाभाव से समस्त सेना प्यास से व्याकुल हो गयी । समस्या के निवारण के लिए उदायन राजा ने प्रभावती देव की आराधना की । देव के आसन में कम्प उत्पन्न हुआ । देव द्वारा अवधिज्ञान का प्रयोग करने पर उदायन राजा की आकृति दिखाई पड़ी । देव ने तुरन्त आकर बादलों से जलवर्षा करवायी जिससे देवता द्वारा निर्मित पुष्कर में जल एकत्र हो गया । इस देवकृत पुष्कर को ही अज्ञानी लोग पुष्करतीर्थ कहने लगे । उज्जयिनी पहुँचकर उदायन राजा ने प्रद्योत को घेर लिया और अधिसंख्य लोगों की उपस्थिति में उससे कहा, "तुमसे हमारा विरोध है । हम दोनों ही युद्ध करेंगे, शेष जनों को मरवाने से क्या ?" प्रद्योत ने इसे स्वीकार कर लिया। बाद में दूत के माध्यम से सन्देश भिजवाया कि, "किस प्रकार युद्ध करेंगे-रथों से, हाथियों से या अश्वों से ?" उदायन ने कहा, "तुम्हारे हाथी अनलगिरि जैसा उत्तम हाथी मेरे पास नहीं है, तब भी तुझे जो अभीष्ट है उससे युद्ध करो ।" प्रद्योत ने कहा, "रथ से युद्ध करेंगे!" निश्चित दिन उदायन रथ पर उपस्थित हुआ जबकि प्रद्योत अनलगिरि हाथी-रत्न के साथ । शेष सेनापति एवं सैन्यसमूह दर्शक मात्र था, तटस्थ था । युद्ध आरम्भ होने पर उदायन ने हाथी के चारों पैरो को बाँध दिया। हाथी गिर पड़ा। उज्जयिनी पर उदायन का अधिकार हो गया। स्वर्णगुलिका भाग गई। देवताधिष्ठित प्रतिमा को पुनः वहाँ से लाना सम्भव नहीं हुआ। प्रद्योत के ललाट पर “दासीपति'' यह नाम अङ्कित करवाया गया। उदायन सेना सहित लौट आया, प्रद्योत भी बन्दी बनाकर लाया गया । उदायन के वापस आते-आते वर्षाकाल आ गया। पर्युषण पर्व आरम्भ होने पर उदायन ने दूत द्वारा प्रद्योत से पूछवाया कि वे क्या आहार ग्रहण करेंगे । दूत द्वारा अप्रत्याशित रूप से पूछने पर प्रद्योत आशङ्कित हो गया कि प्राण का खतरा है । दूत ने शङ्का-निवारण किया कि, 'श्रमणोपासक राजा आज पर्युषणा का उपवास रखते हैं इसलिए तुम्हें इच्छित आहार प्रदान करेंगे ।' प्रद्योत को दुःख हुआ कि पापकर्म युक्त होने के कारण पर्युषण का आगमन भी नहीं जान पाया । उसने उदायन से कहलवाया कि, 'वह भी श्रमणोपासक है और आज आहार नहीं ग्रहण करेगा ।' तब उदायन ने कहा, "श्रमणोपासक को बन्दी बनाने से मेरा सामायिक शुद्ध नहीं होगा और न ही सम्यक् पर्युशमन होगा । इसलिए श्रमणोपासक को बन्धन से मुक्त करता हूँ और सम्यक् क्षमापना करूँगा ।" उसने प्रद्योत को मुक्त कर दिया और ललाट पर जो अङ्कित था उस पर स्वर्णपट्ट बाँध दिया । उसके बाद से वह 'पट्टबद्ध' राजा के रूप में प्रख्यात हो गया । इस प्रकार यदि गृहस्थ भी वैरवश किये गये पापों का उपशमन करते हैं तो पुनः सर्वपाप से विरत श्रमणों को तो अच्छी प्रकार से उपशमन करना चाहिए ।

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