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२. विगई–विगई के दस प्रकार हैं । दूध, दही, घी, तेल, गुड़, कडा(कटाह-तले हुए खाद्य), मधु(शहद), मक्खन, मदिरा और मांस । अन्तिम चार विगई अप्रशस्त है, बाकी छह प्रशस्त है । जिस का संग्रह हो सके उसे 'सांचयिक विगई' कहा जाता है । जो तुरन्त बिगड जाती है, उसे 'असांचयिक विगई' कहा जाता है । चातुर्मास में द्रव्य-भाव की विवृद्धि हो ऐसी प्रशस्त विगई का ही ग्रहण करना चाहिए । विकृति करना विगई का स्वभाव है । जो साधु विगई का या विगईमिश्रित आहार का भक्षण करता है, उसका संयम दूषित होता है । विगई संयम को दूषित करके साधु को जबरदस्ती दुर्गति में ले जाती है । उत्सर्ग से विगई ग्रहण निषिद्ध है । अपवाद से अनिवार्य स्थिति में वृद्ध, बाल और दुर्बल साधु के लिये प्रशस्त विगई का ग्रहण किया जाता है । तरुण और बलवान साधु को जरुरत पड़ने पर ही विगई दी जाती है । ग्लान-बीमार साधु के लिये अत्यन्त आगाढ़ अपवाद से अनिवार्य स्थिति में अप्रशस्त विगई का ग्रहण किया जाता है ।
कल्पसूत्र के २५३ वें सूत्र में मदिरा एवं माँस के ग्रहण की विधि का प्रतिपादन किया गया है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि, 'क्या जैन साधु मदिरा एवं माँस का परिभोग करते थे?' इसका उत्तर यह है कि, 'जैन साधु मदिरा एवं मांस का परिभोग नही करते थे ।' न ही सूत्र इस प्रकार की अनुज्ञा प्रदान करता है । अत्यन्त आगाढ अपवाद से अनिवार्य स्थिति में किसी श्रुतधर आचार्यादि के प्राण का प्रश्न हो, दूसरा कोई इलाज ही उपलब्ध न हो, ऐसी अवस्था में बाह्य उपचार के रूप में अप्रशस्त विगई का ग्रहण किया जाता है। इस विषय में 'उवासगदसा' का पाठ पुष्ट प्रमाण है। एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा णेरड्याए कम्मं पकरेंति, णेरइयत्ताए कम्म पकरेंता णेरइसेसु उववज्जति । तं जहा-महारंभयाए महापरिग्गहयाए, पचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं । अर्थ :- जीव चार कारणों से नरक का आयुष्य बन्ध करते हैं और फलतः नरक में उत्पन्न होते हैं । महारंभ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय की हत्या और मांसाहार । इस सन्दर्भ में उपा. श्री धर्मसागरजी कत 'कल्पसत्र की किरणावली टीका'१ एवं उपा. श्री समयसुन्दरजी कृत
१. वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हटाणं आरुग्गाणं बलियसरीराणं इमाओ नवरसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहारित्तए । तं जहा-खीरं दहिं नवणीयं सप्पिं तिल्लं गुडं महुँ मज्जं मंसं ॥१७॥ ( २५१)
व्याख्या-वासावांसं इत्यादितो मंसं त्ति पर्यन्तम् । तत्र हृष्टानां-तरुणत्वेन समर्थानां युवानोऽपि केचित्सरोगाः स्युरित्याह-अरोगाणां क्वचिद् आरुग्गाणमिति पाठस्तत्रारोग्यमस्त्येषामित्यभ्रादित्वादप्रत्यय आरोग्यास्तेषां, तादृशा अपि केचित् कृशाङ्गाः स्युरित्याह-बलिकशरीरिणां, रसप्रधाना विकृतयो रसविकृतयस्ता अभीक्ष्णं-पुनः पुनर्न कल्पन्ते, रसग्रहणं तासां मोहोद्भवहेतुत्वख्यापनार्थम्, अभीक्ष्णग्रहणं पुष्टालम्बने कदाचित्तासां परिभोगानुज्ञार्थं, नवग्रहात्कदाचित् पक्वान्नंऽपि गृह्यते । विकृतयो द्विधा-सञ्चयिका असञ्चयिकाश्च, तत्रासञ्चयिकाः दुग्धदधिपक्वान्नाख्या ग्लानत्वे वा गुरुबालवृद्धतपस्विगच्छोपग्रहार्थं वा श्रावकादरनिमन्त्रणाद्वा ग्राह्याः, सञ्चयिकास्तु घृततैलगुडाख्यास्तिस्रस्ताश्च प्रतिलाभयन् गृही वाच्यः 'महान् कालोऽस्ति ततो