Book Title: Kalpniryukti
Author(s): Bhadrabahusuri, Manikyashekharsuri, Vairagyarativijay
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 22
________________ 21 ३. संस्तारक-संस्तारक ग्रहण करने का विधि इस प्रकार है । ऋतुबद्ध काल में जो संस्तारक का ग्रहण किया था वह जीर्ण हो जाने से चातर्मास में नये संस्तारक का ग्रहण किया जाता है । उस समय में साधु घास से बने संस्तारक का उपयोग करते थे। घास के संस्तारक का घास गिर जाता था । इस लिये चातुर्मास में नया संस्तारक लिया जाता है जो परिशाटी न हो अर्थात् जिससे घास न गिरता हो । गुरु के लिये तीन और शेष साधुओं के लिए एक संस्तारक लिया जाता है । ४. मात्रक-मात्रक का अर्थ है, आहार में उपयोगी पात्र से अतिरिक्त पात्र । मात्रक खास कर शारीरिक मल के त्याग के लिये उपयोगी होता है। मात्रक की संख्या तीन होती है। एक-मूत्रविसर्जन के लिये, दो-मलविसर्जन के लिये और तीन-श्लेश्म विसर्जन के लिए। ऋतुबद्ध काल के मात्रकों का त्याग कर चातुर्मास में नये मात्रक ग्रहण किये जाते हैं । संयम और मेहमान हेतु कारणवश मात्रक ग्रहण करने की अनुज्ञा है ।२ ५. लोच-जिन याने अरिहंत अथवा जिनकल्पी । इनको हमेशा लोच रहता है । अर्थात् वे सदा मुण्ड-केश ही होते हैं । स्थरविरकल्पी साधु चातुर्मास में सांवत्सरिक पर्युषणा पर्व से पहले अवश्य लोच कर लेते हैं । अशक्त और असहु के लिये अपवाद रूप कैची, अलाहि, इय वत्तव्वं सिआ, से किमाह भंते ! एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स, सिया णं एवं वयंतं परो वइज्जा पडिगाहेहि अज्जो पच्छा तुमं भोक्खसि वा पाहिसि वा, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए ॥१८॥ ( २५२) व्याख्या-वासावासं इत्यादितो नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिग्गाहित्तए त्ति पर्यन्तम् । तत्र अस्त्येकेषां वैयावृत्त्यकरादीनामेवामुक्तपूर्वं भवति गुरुं प्रतीति शेषः, हे भदन्त ! भगवन् ! अर्थः प्रयोजनं ग्लानस्य विकत्येति काक्वा प्रश्नावगतिः एवमुक्ते स च गुरुर्वदेत अर्थः से अ पच्छेड़ त्ति तं च ग्लानं स वैयावृत्त्यकरः पृच्छति । क्वचित् से अ पुच्छेअव्वे त्ति पाठः तत्र ग्लानः प्रष्टव्यः किं पृच्छतीत्याह-केवइएणं अट्ठो कियता विकृतिजातेन क्षीरादिना तवार्थः, तेन च ग्लानेन स्वप्रमाणे उक्ते स वैयावृत्यकरो गुरोरग्रे समागत्य ब्रूयात्, एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स इति इयतार्थो ग्लानस्य, ततो गुरुराह-जं से इति यत्स ग्लानः प्रमाणं वदति तत्प्रमाणेन से इति तद्विकृतिजातं ग्राह्यं त्वया, से अ विण्णविज्जा स च वैयावृत्त्यकरादिविज्ञपयेत्-याचेत् गृहस्थपार्वात् विज्ञप्तिधातुरत्र याञ्चायां, स च याचमानो लभेत तद्वस्तु, तच्च प्रमाणप्राप्तं-पर्याप्त जातं ततश्च होउ अलाहि त्ति साधुप्रसिद्ध-इत्थमिति शब्दस्यार्थे भवत्विति पदं अलाहि त्ति सृतमित्यर्थः, 'अलाहि निवारणे' इति वचनात् अन्यन्मा दाः इति वक्तव्यं स्यात् गृहस्थं प्रति । ततो गृही प्राह-अथ किमाहुर्भदन्ताः-किमर्थं सृतमिति ब्रुवते भवन्तः इत्यर्थः, साधुराह-एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स एतावताऽर्थो ग्लानस्य सिआ कदाचित् एनं साधुमेवं वदन्तं परो दाता गृही वदेत् किमित्याह अज्जो इत्यादि हे आर्य ! प्रतिगृहाण त्वं पश्चाद्यदधिकं तत्त्वं भोक्ष्यसे-भुञ्जीथाः पक्वान्नादि पास्यसि पिबेर्द्रवं क्षीरादि । क्वचित् पाहिसिस्थाने दीहिसि त्ति पाठः, तत्रातीव हृद्यम्, अन्यस्य साधोर्वा दद्या एवमुक्ते गृहिणा से तस्य साधोः कल्पते प्रतिगृहीतुं न पुनर्लाननिश्रया गाात् स्वयं गृहीतुं ग्लानार्थं याचितं मण्डल्यां नानेयमित्याकूतम् ॥१८॥ १. सन्दर्भ-क.नि. ३२ । २. सन्दर्भ-क.नि. ३३ ।

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