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जिनागम के अनमोल रत्न]
(5) तत्त्वज्ञान तरंगिणी यह शुद्धचिद्रूप ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । तप, सुख, शक्ति और दोषों का अभाव स्वरूप है। गुणवान और परमपुरूष है। उपादेय-गृहण करने योग्य और अहेय है। पर-परिणति से रहित ध्यान करने योग्य है। पूज्य और सर्वोत्कृष्ट है। किन्तु शुद्धचिद्रूप से भिन्न सम्यग्दर्शनादि कोई पदार्थ नहीं, इसलिये मैं प्रति समय उसी का स्मरण करता हूँ, मनन करता हूँ।1-9।।
मेरा आत्मा चिदानन्द सवरूप है मुझे परद्रव्यों से चाहे वे देखें हों, जाने हों, परिचय में आये हों, बुरे हों, भले हों, भले प्रकार संस्कृत हों, विकृत हों, नष्ट हों, उत्पन्न हों, स्थूल हों, सूक्ष्म हों, जड़ हों, चेतन हों, इन्द्रियों को प्रिय हों, अथवा अप्रिय हों, कोई प्रयोजन नहीं है।।1-14।।
भगवान सर्वज्ञ की वाणी रूपी समुद्र के मंथन करने से मैंने बड़े भाग्य से शुद्धचिद्रूप रूपी रत्न प्राप्त कर लिया है और मेरी बुद्धि परपदार्थों को निज न मानने से स्वच्छ हो चुकी है, इसलिये अब मेरे लिये संसार में कोई पदार्थ न जानने लायक रहा और न देखने योग्य, ढूंढने योग्य, कहने योग्य, ध्यान करने योग्य, सुनने योग्य, प्राप्त करने योग्य, आश्रय करने योग्य और ग्रहण करने योग्य ही रहा; क्योंकि यह शुद्धचिद्रूप अप्राप्त पूर्व-पहिले कभी भी प्राप्त न हुआ था, ऐसा है और अति-प्रिय है। 1-19।। ..
यह शुद्धचिद्रूप का स्मरण मोक्षरूपी वृक्ष का कारण है। संसाररूपी समुद्र के पार होने के लिये नाव है। दुखरूपी भयंकर वन के लिये दावानल है। कर्मों से भीत मनुष्यों के लिये सुरक्षित सुदृढ़ किला है। विकल्परूपी रज के उड़ाने के लिये पवन का समूह है। पापों को रोकने वाला है। मोहरूप सुभट के जीतने के लिये शस्त्र है। नरक आदि अशुभ पर्यायरूपी रोगों के नाश करने के लिये उत्तम अव्यर्थ औषधि है एवं तप, विद्या और अनेक गुणों का घर है। 2-2।।