Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 230
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [229 (समताभाव मात्र ही में सुख है) हांसीमैं विषाद बसै विद्यामैं विवाद बसै, कायामैं मरन गुरू वर्तनमैं हीनता। सुचिमैं गिलानि बसै प्रापतिमैं हानि बसैं , जैमैं हारि सुंदर दसामैं छबि छीनता।। रोग बसै भोगमैं संजोगमैं वियोग बसै, 'गुनमैं गरब बसै सेवा मांहि हीनता। और जगरीति जेती गर्भित असाता सेती, साताकी सहेली है अकेली उदासीनता।।11।। (सस व्यसन के नाम) जूवा आमिष मदिरा दारी, आखेटक चोरी परनारी। एई सात विसन दुखदाई, दुरित मूल दुरगतिके भाई।।27।। (सप्त भाव व्यसनोंका स्वरूप) अशुभमैं हारि शुभ जीति यहै दूत कर्म , देहकी मगनताई यहै मांस भखिवौ । मोहकी गहलसौं अजान यहै सुरापान, कुमतिकी रीति गनिकाको रस चखिवौ ।। निरदै लै प्रानघात करवौ यहै सिकार, परनारी संग परबुद्धिको परखिवौ । प्यारसौं पराई सौंज गहिवेकी चाह चोरी, एई सातौं विसन बिडारै ब्रह्म लखिवौ ।।29।।

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