Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 193
________________ 192] [जिनागम के अनमोल रत्न __(35) पाहुड़ दोहा वरू विसु विसहरू वरू जलणु तरू सेविउ वणवासु। णउ जिणधम्मपरम्मुहउ मित्थतिय सहु वासु।।20।। अर्थ :- विष भला, विषधर भी भला, अग्नि या वनवास का सेवन भी अच्छा, परन्तु जिनधर्म से विमुख ऐसे मिथ्यादृष्टियों का सहवास अच्छा नहीं। मणु मिलियउ परमेसरहो परमेसरु जि मणस्स। विण्णि विसमरसि हुइ रहिय पुज्ज चडावउं कस्स।4।। आराहिज्जइ देउं परमेसरू कहिं गयउ । वीसारिज्जइ काई तासु जो सिउ सब्वंगउ।।50 ।। अर्थ :- मन तो परमेश्वर में मिल गया और परमेश्वर मन से मिल गया; दोनों एक रस-समरस हो रहे हैं, तब मैं पूजन सामग्री किसको चढ़ाऊं?? रे जीव! तू देव का आराधन करता है, परन्तु तेरा परमेश्वर कहां चला गया? जो शिव-कल्याण रूप परमेश्वर सर्वांग में विराज रहा है, उसको तू कैसे भूल गया? अप्पा केवलणाणमउ हियडइ णिवसई जासु। तिहुयणि अच्छइ मोक्कलउ पाउ ण लग्गइ तासु।।5।। ___अर्थ :- केवलज्ञानमय आत्मा जिसके हृदय में निवास करता है, वह तीन लोक में मुक्त रहता है और उसे कोई पाप नहीं लगता। अप्पा दंसण के वलु वि अण्णु सयलु ववहारू। एक्कु सु जोइय झाइयइ जो तइलोयहं सारू।।68।। अर्थ :- केवल आत्मदर्शन ही परमार्थ है और सब व्यवहार है। तीन लोक का जो सार है-ऐसे एक इस परमार्थ को ही योगी ध्याते हैं। अप्पा मिल्लिवि जगतिलउ जो परदव्वि रमंति। अण्णु कि मिच्छादिट्ठियहं मत्थई सिंगई होति।।7।।

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