Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 210
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [209 होने वाले रोगों के दुःखों को जानता है परन्तु वह उन दुःखों का अनुभव नहीं कर सकता। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि पुरूष शास्त्रों में कहे हुए वाक्यों के अनुसार आत्मा के स्वरूप को जानता है तथापि मिथ्यात्वकर्म के उदय से उसका आस्वादन या अनुभव नहीं कर सकता। 126-27।। इससे सिद्ध होता है कि अणुव्रत या महाव्रत क्रियाओं को पालन करने वाले इस मिथ्यादृष्टि का ज्ञान यद्यपि ग्यारह अंक तक का ज्ञान है तथापि शुद्ध आत्मा के अनुभव के बिना वह ज्ञान अज्ञान ही कहलाता है। 28 ।। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, तीर्थंकरों का शरीर, आहारक शरीर, देवों का शरीर और नारकियों का शरीर - इन आठ स्थानों में निगोदिया जीव नहीं रहते हैं। इनके सिवाय बाकी जीवों के शरीर निगोद राशि से भरे हुए प्रतिष्ठित समझने चाहिए।।31।। निगोदिया जीवों के एक शरीर में जो अनन्तानन्त जीव होते हैं उनकी संख्या व्यतीत अनादिकाल से तथा आज तक जितने सिद्ध हुए हैं उनकी संख्या से अनन्तगुणी हैं।। मुक्ति के मुख कमल को देख... हे आत्मन्...! तू आत्मा के प्रयोजन का आश्रय कर अर्थात् और प्रयोजनों को छोड़कर केवल आत्मा के प्रयोजन का ही आश्रय कर तथा मोहरूपी वन को छोड़, विवेक अर्थात् भेदज्ञान को मित्र बना। संसार और देह के भोगों से वैराग्य का सेवन कर और परमार्थ से जो शरीर और आत्मा में भेद है, उसका निश्चय से चिन्तवन कर और धर्मध्यान रूपी अमृत के समुद्र के मध्य में | परम अवगाहन (स्नान) करके अनन्त सुख स्वभाव सहित मुक्ति के मुख कमल को देख। -श्री ज्ञानार्णवजी : आ. शुभचन्द्र स्वामी

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