Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 218
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [217 और संकलप विकलपके विकार तजि , बैठिकैं एकंत मन एक ठौरू आनु रे । तेरौ घट सर तामैं तूही है कमल ताकौ , तूही मधुकर है सुवास पहिचानु रे । प्रापति न वै है कछु ऐसौ तू विचारतु है , सही है है प्रापति सरूप यौंही जानु रे ॥३॥ (जड़-चेतन की भिन्नता) वरनादिक रागादि यह, रूप हमारौ नांहि । एक ब्रह्म नहिं दूसरौ, दीसै अनुभव मांहि ।।6।। 3. कर्ता कर्म क्रियाद्वार : पदार्थ अपने स्वभाव का कर्ता है ग्यान-भाव ग्यानी करै, अग्यानी अग्यान। दर्वकर्म पुद्गल करै, यह निहचै परवान।।7।। (ज्ञान का कर्ता जीव ही है, अन्य नहीं है) ग्यान सरूपी आतमा, करै ग्यान नहि और। दरब करम चेतन करै, यह विषहारी दौर ।।४।। (जीव को अकर्त्ता मानकर आत्मध्यान करने की महिमा) जे न करें नयपच्छ विवाद, धरै न विखाद अलीक न भाखें । जे उदवेग तजै घट अंतर, सीतल भाव निरंतर राखें ।। जे न गुनी-गुन-भेद विचारत, आकुलता मनकी सब नाई। तेजगमैं धरि आतमध्यान, अखंडित ग्यान-सुधारसचाखें।।25।।

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