Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 219
________________ 218] [जिनागम के अनमोल रत्न 4. पुण्य-पाप एकत्वद्वार : शिष्य की शंका का समाधान पाप बंध पुन बंध दुहूंमैं मुकति नाहि, ___कटुक मधुर स्वाद पुग्गलको पेखिए । संकलेस विसुद्ध सहज दोऊ कर्मचाल, कुगति सुगति जगजालमैं विसेखिए । कारनादि भेद तोहि सूझत मिथ्यात मांहि , ऐसौ द्वैत भाव ग्यान द्दष्टिमैं न लेखिए । दोऊ महा अंधकूप दोऊ कर्मबंधरूप , दुहूंको विनास मोख मारगमैं देखिए ।।6।। 5. आस्रव अधिकार : अशुद्ध नय से बन्ध और शुद्ध नयसे मुक्ति है यह निचोर या ग्रंथको , यहै परम रसपोख । तजै सुद्ध नय बंध है,गहै सुद्ध नय मोख ।। 13।। ___6. संवर द्वार : आत्मस्वरूप की प्राप्ति होने पर भेदज्ञान हेय है भेदग्यान तबलौं भलौं, जबलौं मुकति न होइ। परम जोति परगट जहां, तहां न विकलप कोई।।7।। (भेदज्ञान से आत्मा उज्ज्वल होता है) भेदग्यान साबू भयौ, समरस निरमल नीर । धोबी अंतर आतमा, धोवै निजगुन चीर।।।। 7. निर्जरा द्वार : चौपाई जो बिनु ग्यान क्रिया अवगाहै, जो बिनु क्रिया मोखपद चाहै। जो बिनु मोख कहै मैं सुखिया, सो अजान मूढ़निमैं मुखिया ।1।।

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