Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 225
________________ 224] [जिनागम के अनमोल रत्न घेरा मांहि परयौ तू विचारै सुखआंखिनकौ , माखिनके चूटत मिठाई जैसै भिनकी। एते परि होहि न उदासी जगवासी जीव, जगमैं असाता है न साता एक छिनकी।।44।। (आत्मस्वरूप की पहिचान ज्ञान से होती है) केई उदास रहैं प्रभु कारन, केई कहैं उठि जांहि कहींकै। केई प्रनाम करै गढ़ि मूरति, केई पहार चढ़े चढ़ि छींकै।। केई कहैं असमानके ऊपरि, केई कहैं प्रभु हेठि जमींकै। मेरो धनी नहि दूर दिसन्तर, मोहीमैं है मोहि सूझत नीकै।।48।। (आत्मानुभव करनेकी विधि) प्रथम सुदिष्टिसौं सरीररूप कीजै भिन्न , ___ तामैं और सूच्छम सरीर भिन्न मानिये । अष्टकर्म भावकी उपाधि सोऊ कीजै भिन्न , ताहूमैं सुबुद्धिकौ विलास भिन्न जानिये ।। तामैं प्रभु चेतन विराजत अखंडरूप , वहै श्रुतग्यानके प्रवांन उर आनिये। वाहीको विचार करि वाहीमैं मगन हजै , वाकौ पद साधिबेकौं ऐसी विधि ठानिये ।। 55॥ 9. मोक्ष द्वार : छह द्रव्यहीसे जगतकी उत्पत्ति है एई छहौं दर्व इनहीकौ है जगतजाल, तामैं पांच जड़ एक चेतन सुजान है। काहूकी अनंत सत्ता काहूसौं न मिलै कोइ , एक एक सत्तामैं अनंत गुन गान है।।

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