Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 227
________________ 226] [जिनागम के अनमोल रत्न परम समधि साधिबेकौं मन बढ़े हैं । तेई परमारथी पुनीत नर आठौं जाम, राम रस गाढ़ करैं यह पाठ पढ़े हैं ।। 32 ।। 10. सर्वविशुद्धि द्वार : अज्ञानी जीव विषयोंका भोगता है, ज्ञानी नहीं है जगवासी अग्यानी त्रिकाल परजाइ बुद्धि, सो त विषै भोगनिकौ भोगता कहायौ है । समकिती जीव जोग भोगस उदासी तातैं, सहज अभोगता गरंथनिमैं गायौ है ।। याही भांति वस्तुकी व्यवस्था अवधारि बुध, परभाउ त्यागि अपनी सुभाउ आयौ है । निरविकलप निरूपाधि आतम अराधि, साधि जोग जुगति समाधिमैं समायौ है ।। 7 ।। (दुर्बुद्धि की परिणति) बात सुनि चौंक उठे बातहीसौं भौंक उठे, बातसौं नरम होइ बातहीसौं अकरी । . निंदा करै साधुकी प्रसंसा करै हिंसककी, सातामा प्रभुता असाता मानैं फकरी ।। मोख न सुहाइ दोष देखै तहां पैठि जाइ, कालसौं डराइ जैसें नाहरसौं बकरी । एसी दुरबुद्धि भूली झूठकै झरोखे झूली, फूली फिरै ममता जंजीरनिसौं जकरी ।।39 ।।

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