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[जिनागम के अनमोल रत्न
परम समधि साधिबेकौं मन बढ़े हैं ।
तेई परमारथी पुनीत नर आठौं जाम,
राम रस गाढ़ करैं यह पाठ पढ़े हैं ।। 32 ।।
10. सर्वविशुद्धि द्वार : अज्ञानी जीव विषयोंका भोगता है, ज्ञानी नहीं है जगवासी अग्यानी त्रिकाल परजाइ बुद्धि,
सो त विषै भोगनिकौ भोगता कहायौ है । समकिती जीव जोग भोगस उदासी तातैं,
सहज अभोगता गरंथनिमैं गायौ है ।। याही भांति वस्तुकी व्यवस्था अवधारि बुध,
परभाउ त्यागि अपनी सुभाउ आयौ है । निरविकलप निरूपाधि आतम अराधि,
साधि जोग जुगति समाधिमैं समायौ है ।। 7 ।।
(दुर्बुद्धि की परिणति)
बात सुनि चौंक उठे बातहीसौं भौंक उठे,
बातसौं नरम होइ बातहीसौं अकरी । . निंदा करै साधुकी प्रसंसा करै हिंसककी,
सातामा प्रभुता असाता मानैं फकरी ।। मोख न सुहाइ दोष देखै तहां पैठि जाइ,
कालसौं डराइ जैसें नाहरसौं बकरी । एसी दुरबुद्धि भूली झूठकै झरोखे झूली,
फूली फिरै ममता जंजीरनिसौं जकरी ।।39 ।।