Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 201
________________ 200] [जिनागम के अनमोल रत्न के नियम से मोहोपचय क्षय हो जाता है। इसलिये शास्त्र का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिये। दृग मोह से जो रहित , आगम कुशल चरित विराग में । आरूढ़ हैं वे ही महात्मा , श्रमण धर्म कहा उन्हें ।।92।। हैं द्रव्यमय सब अर्थ , दव्य गुणात्मक जिनवर कहे । उनसे प्रगट पर्याय , पर्ययमूढ़ परसमयी कहे ।।3।। अर्थ :- पदार्थ द्रव्य स्वरूप है, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं और द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं। पर्यायमूढ़ जीव परसमय हैं। जो पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइगत्ति णिहिट्ठा। आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदब्बा।।4।। हैं लीन जो पर्याय में वे , परसमय निर्दिष्ट हैं । हैं लीन आत्मस्वभाव में वे , स्वसमय मंतव्य हैं । अशुभोपयोग रहित न शुभ , उपयुक्त हो पर-द्रव्य में । मध्यस्थ हो ज्ञानात्मक , निज आत्मा ध्याता हूँ मैं ।।159॥ मैं देह न न मन, न वाणी सभी का कारण नहीं। कर्ता न कारयिता नहीं, कर्ता काअनुमोदक नहीं 160॥ रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो।।179।। है रक्त बाँधे कर्म और , विरक्त छूटे कर्म से । ये बंध का संक्षेप है , जीवों का जानो नियम से ।। छोड़े न ममता देह धन में, मैं हूँ ये ये मेरे हैं । वह छोड़कर श्रामण्य को, उन्मार्गको ही प्राप्त है ।190।

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