Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 207
________________ [जिनागम के अनमोल रत्न श्रद्धा और स्वानुभव इन दोनों में समव्याप्ति है । इसलिये अनुपलब्ध पदार्थ में गधे के सींग के समान श्रद्धा हो ही नहीं सकती। 165 ।। 206] स्वानुभूति के बिना केवल श्रुत के आधार से जो श्रद्धा होती है वह यद्यपि तत्त्वार्थनुगत है तो भी तत्त्वार्थ की उपलब्धि नहीं होने से वह वास्तविक श्रद्धा नहीं है । 166 ।। सम्यक्त्व मात्र या शुद्ध आत्मा का अनुभव ही धर्म है और अतीन्द्रिय, अविनाशी क्षायिक सुख ही उसका फल है ।।77 ।। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा बन्ध भी है मोक्ष भी है और उसका फल भी है । किन्तु शुद्धनय की अपेक्षा सभी जीव सदा शुद्ध हैं । 199 ।। समस्त जीवादि वस्तु समुदाय निश्चय और व्यवहार रूप से जो जैसा माना गया है वह वैसा ही है, ऐसी बुद्धि का होना आस्तिक्य है । सो सम्यक्त्व का अविनाभावी हैं जिसका स्वानुभूति एक लक्षण है वह सम्यक् आस्तिक्य है और इससे विपरीत मिथ्या आस्तिक्य ।।101 + 102 ।। आदि के दो ज्ञान परपदार्थों का ज्ञान करते समय यद्यपि परोक्ष हैं तथापि दर्शनमोहनीय के उपशम आदि के कारण स्वानुभव के समय वे प्रत्यक्ष ही हैं । प्रकृत में अपने आत्मा की अनुभूति ही आस्तिक्य नाम का परमगुण माना गया है। फिर चाहे परद्रव्य का ज्ञान हो चाहे मत हो, क्योंकि परपदार्थ पर हैं ।।105-106।। ऋते सम्यक्त्वभावं यो धत्ते व्रततपः क्रि याम् । तस्य मिथ्यागुणस्थानमेकं स्यादागमे स्मृतम् ।।124 ।। आगम में लिखा है कि बिना सम्यग्दर्शन के जो व्रत या तपश्चरण की क्रियाओं को धारण करता है उसके सदा पहला मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है। अस्तिचात्मपरिच्छेदि ज्ञानं सम्यग्दृगात्मनः । स्वसंवेदनप्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धास्पदौपमम् । 13-13।।

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