Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 206
________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] ( 38 ) लाटी संहिता [205 साक्षाज्जीवस्योपाधिवजितः । शुद्धस्यानुभवः सम्यक्त्वं निश्चयान्नूनमर्थादेकविधं हि तत् ।।2 - 11 ।। अर्थ :- जो बिना किसी उपाधि के, बिना किसी उपचार के शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होता है वही निश्चयनय से निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है । उस निश्चय सम्यग्दर्शन में कोई उपाधि या उपचार नहीं है इसलिये ही वह सम्यग्दर्शन एक ही प्रकार का होता है। वहीं कहा है शुद्ध आत्मा का निश्चय होना, अनुभव होना, निश्चय सम्यग्दर्शन है। शुद्ध आत्मा का ज्ञान होना निश्चय सम्यग्ज्ञान है, और शुद्ध आत्मा में लीन होना निश्चय सम्यग्चारित्र है । इसलिये इन निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र से कैसे बन्ध हो सकता है ? सम्यग्दृष्टि आत्मा के यद्यपि श्रद्धान आदि गुण होते हैं पर वे उसके बाह्य लक्षण हैं। सम्यक्त्व उन रूप नहीं है क्योंकि वे ज्ञान की पर्याय हैं । 41 ।। तथा आत्मानुभूति भी ज्ञान ही है, क्योंकि वह ज्ञान की पर्याय है। वास्तव में वह आत्मानुभूति ज्ञान ही है सम्यक्त्व नहीं । यदि उसे सम्यक्त्व माना भी जाये तो वह उसका बाह्य लक्षण है । 142 ।। जीवादि पदार्थों के सन्मुख बुद्धि का होना श्रद्धा है। बुद्धि का तन्मय हो जाना रूचि है । 'ऐसा ही है' इस प्रकार स्वीकारोक्ति प्रतीति है और अनुकूल क्रिया चरण है । 12-57 ।। ये श्रद्धा आदि चारों पृथक् पृथक् रूप से अथवा समस्त रूप से सम्यग्दृष्टि के लक्षण भी हैं और नहीं भी हैं। क्योंकि ये सपक्ष और विपक्ष दोनों ही अवस्थाओं में पाये जाते हैं और नहीं भी पाये जाते हैं । 159 ।। यदि स्वानुभूति के साथ होते हैं तो श्रद्धादिक गुण हैं और स्वानुभूति के बिना वे वास्तव में गुण नहीं है गुणाभास हैं ।। 61 ।।

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