Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 202
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [201 . नित इस तरह मैं आत्मा को, ज्ञान दर्शनमय अचल । हूँमानता ध्रुवशुद्ध, आलंबन न, इन्द्रिय बिन, महत।।2।। तन-धन व सुख-दुःख मित्र अरिजन, जीव के ये ध्रुव नहीं। इस जीव को ध्रुव एक है, उपयोगमय निज जीव ही।193।। यह जान जो शुद्धात्मा, ध्यावे सदा परमात्म को । सागार या अनगारवह, क्षय करे मोह दुग्रन्थि को 194।। जो मोह कलुष विहीन विषय विरक्त रोधक चित्त का। स्वभाव में समअवस्थित, है वही ध्याताआत्मा का।196।। इस तरह जिन जिनदेव, मुनि इस मार्ग में आरूढ़ हो । मुक्ति गये, हो नमन उनको, और मुक्तिमार्ग को 199।। इसलिये वैसा जानकर, ज्ञायक स्वभावी आत्म को । हो उपस्थित ममता रहित , मैं छोड़ता हूँममत्व को ।।200। आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरूकलत्तपुत्तेहिं । आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ।।202।। . वह पूछ बन्धु वर्ग से, गुरू पुत्र पत्नी त्यक्त हो। स्वीकार कर तप-ज्ञान-दर्शन, चरित वीर्याचार को। टीका-जो श्रमण होना चाहता है, वह बंधुवर्ग से इस प्रकार विदा लेता है:- अहो! इस पुरूष के शरीर के बंधुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ! इस पुरूष का आत्मा किंचित्मात्र भी तुम्हारा नहीं है, इस प्रकार तुम निश्चय जानो। इसलिये मैं तुमसे विदा लेता हूँ। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अनादि बंधु के पास जा रहा है। अहो! इस पुरूष शरीर के जनक के आत्मा! अहो! इस पुरूष के शरीर की जननी के आत्मा! इस पुरूष का आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित नहीं है। ऐसा तुम निश्चय से जानो। इसलिये तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञान ज्योति

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