Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 195
________________ 194] [जिनागम के अनमोल रत्न पुण्ण होइ विहओ विहवेण मओ मएण मइ मोहो । मइ मोहेण य णस्यं तं पुण्ण अम्ह मा होउ ।। अर्थ :- पुण्य से विभव मिलता है, विभव से मद होता है, मद से मतिमोह होता है और मतिमोह से नरक होता है, ऐसा पुण्य हमें न हो ।।138 ।। मैं जहाँ-जहाँ देखता हूँ, वहाँ सर्वत्र आत्मा ही दिखता है, तब फिर मैं किसकी समाधि करूं और किसको पूजूं ? छूत-अछूत कहकर किसका तिरस्कार करूँ? हर्ष या क्लेश किसके साथ करूं? और सम्मान किसका करूँ? ।।139 ।। हे जिनवर! जब तक मैंने देह में रहे हुए 'जिन' को न जाना, तब तक तुझे नमस्कार किया; परन्तु जब देह में हो रहे हुए 'जिन' को जान लिया, तब फिर कौन किसको नमस्कार करे ? । ।141 ।। (1) हे जीव ! लोग तेरे को 'हठीला हठीला' कहते हैं तो भले कहो, किन्तु हे हठी ! तू क्षोभ मत करना, तू मोह को उखाड़कर सिद्धि - महापुरी में चले जाना । (2) छेला (पागल) लोग तुझे भी पागल कहें तो इसी से तू क्षुब्ध मत होना। लोग कुछ भी कहें तू तो मोह को उखाड़कर महान सिद्धि नगरी में प्रवेश करना । ।143 । हे हताश मधुकर ! कल्पवृक्ष की मंजरी का सुगंध युक्त रस चख करके भी अब तू गंध रहित पलाश के ऊपर क्यों भ्रमता-फिरता है? अरे ! ऐसा करते हुए तेरा हृदय फट क्यों नहीं गया? और तू मर क्यों नहीं गया ? ।।112 ।। अरे रे! अक्षय निरामय परमगति की प्राप्ति अभी तक न हुई। मन की भ्रान्ति अभी तक न मिटी । और ऐसे ही दिन बीते जा रहे हैं । 1169 ।। हे योगी! जिस पद को देखने के लिये तू अनेक तीर्थों में भ्रमण करता फिरता है, वह शिवपद भी तेरे साथ ही साथ घूमता रहा, फिर भी तू उसे न पा सका ।।179 ।।

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