Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 197
________________ 196] [जिनागम के अनमोल रत्न (36) भव्यामृत शतक ऐसे जीव संसार में उभय भ्रष्ट हैं कि जो स्वयं अपने आत्मतत्व को नहीं समझते, तथा आत्मा के जानने वाले अन्य सज्जनों की निन्दा करके आनन्द मानते हैं। 13।। हे जीव! शुद्धनय से सभी जीव शुद्ध हैं-ऐसा जानकर तुम कभी भी शुद्धात्मतत्त्व की भावना को मत छोड़ो। वास्तव में शुद्धनय का सेवन करने वाला जीव सदैव शुद्ध ही रहता है।16।। जब उत्तम कुल, उत्तम क्षेत्र, उत्तम काल, साधुजनों का सत्संग तथा तत्त्व समझने की उत्तम रूचि हो एवं ज्ञान-आचरण तथा संहनन भी उत्तम हो, तब समझना चाहिये कि ये सब आत्मभावना की जागृति का फल है।।39 ।। जैसे घास के तिनके की वाड़ मदमाते हाथी को नहीं रोक सकती, वैसे जिसने अकिंचन आत्मा का स्वाद चख लिया है-ऐसे मुमुक्षु को बाह्य परिग्रहों की बाड़ आत्मसाधना में विघ्न नहीं कर सकती।।41 ।। अधिक क्या कहें? दर्शनविशुद्धि आदि सोलह प्रकार के भाव, बारह प्रकार की अध्रुव आदि वैराग्य अनुप्रेक्षायें एवं अनेक प्रकार के परिषहों का विजय- ये सभी तभी संभव हैं कि जब निजात्मतत्त्व का साक्षात्कार हुआ हो, इसके बिना ये सब असंभव जानो।।43 ।। निज आत्मतत्त्व का स्वाद (अनुभव) सो सम्यग्दर्शन है; आत्मस्वरूप का ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान है और आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति सो सम्यक्चारित्र है; ऐसे रत्नत्रयवंत जीव तीनों लोक में सदा पूज्य हैं। 48 ।। परमात्मतत्त्व के प्रतिपादक शास्त्र के मात्र एक ही वचन से भी जो सारभूत आत्मतत्त्व को जान लेता है, वह तो शास्त्र-समुद्र का पार पा जावेगा; किन्तु अन्य लोग आत्मज्ञान के बिना दिन-रात पढ़कर थक जावें तो भी शास्त्र का या भव का पार नहीं पा सकते। 49 ।। ___ चाहे कोई 11 अंग तक के शास्त्र प्रतिदिन पढ़ लिया करे, किन्तु यदि आत्मतत्त्व का बोध नहीं करता तथा जिनदेव समान निजाकार को अपने में नहीं देखता, तो वह जीव कल्याण प्राप्ति के लिये योग्य नहीं है।।52।।

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