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जिनागम के अनमोल रत्न]
. [177 स्थितिबंधस्थान न जीव के, संक्लेशस्थान भी हैं नहीं। जीव के विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी हैं नहीं।।54।। नहिं जीवस्थान भी जीव के, गुणस्थान भी जीव के नहीं। ये सब ही पुद्गल द्रव्य के, परिणाम हैं जानो यही ।।55।। णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीय भावं च। दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो।। अशुचिपना, विपरीतता ये आश्रवों का जान के। अरू दुःखकारण जानके, इनसे निवर्तन जीव करे।।।2।। अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो। तम्हि ठिदो तच्चित्तो सब्बे एदे खयं णेमि।। मैं एक शुद्ध ममत्व हीन रू, ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ। इसमें रहूं स्थित लीन इसमें, शीघ्र ये सब क्षय करूं।73।। जीवणिवद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं ।। ये सर्व जीवनिबद्ध, अध्रुव, शरणहीन, अनित्य हैं। ये दुःख, दुखफल जानके इनसे निवर्तन जीव करे।।74।। सम्मइंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि बवदेसं। सब्बणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।। सम्यक्त्व और सुज्ञान की, जिस एक को संज्ञा मिले। नयपक्ष सकल विहीन भाषित, वो समय का सार है।।144॥ कम्ममसुहं कुसीलं सुह कम्म, चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि।। है कर्म अशुभ कुशील अरू जानो सुशील शुभकर्म को। किस रीति होय सुशील जो संसार में दाखिल करे।।145।।