Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 180
________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] शुद्धं तु बियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो । जाणतो दु असुद्धं असुद्ध मेवप्पयं लहदि ।। जो शुद्ध जाने आत्म को, वह शुद्ध आत्म हि प्राप्त हो । अनशुद्धजाने आत्म को, अनशुद्ध आत्म हि प्राप्त हो ।।136 ।। परमाणु मित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स । ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सब्वागमधरो वि ।। अणुमात्र भी रागादि का, सद्भाव है जिस जीव को । वो सर्वआगम धर भले ही, जानता नहिं आत्म को । 201॥ अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयातो । कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो ।। नहिं जानता जहं आत्म को, अनआत्म भी नहिं जानता । वो क्योंहि होय सुदृष्टि जो, जीव अजीव को नहिं जानता? ।।202 ।। एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होदि णिच्चमेदम्हि | एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।। इसमें सदा रतिवंत वन, इसमें सदा संतुष्ट रे। इससे हि वन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे । 1206 11 छिज्जदु वा भिज्जदुवा, णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं । जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।। छेदाय या भेदाय, को ले जाय, नष्ट बनो भले । या अन्य को रीत जाय, पर परिग्रह न मेरा है अरे | 1209 1 अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्मं । अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि । । अनिच्छक कहा अपरिग्रही, नहिं पुण्य इच्छा ज्ञानिके । इससे न परिग्रह पुण्य का वो, पुण्य का ज्ञायक रहे । । 210 ।। [179

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