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[जिनागम के अनमोल रत्न चक्रवर्ती के सुख का फल राग है, क्योंकि विषय सुख का सेवन पुरूष को विषय में अनुरक्त करता है तथा वह तृष्णा को बढ़ाता है। अत्यन्त गृद्धि को-लंपटता को उत्पन्न करता है, उसमें तृप्ति नहीं है। अतः चक्रवर्ती का सुख अपरिग्रही को जो परिग्रह त्याग करने पर सुख होता है, उसके अनन्तवें भाग भी नहीं है।।1177।।
जो मुक्ति के उत्कृष्ट सुख का अनादर करके अल्प सुख के लिये निदान करता है वह करोड़ों रूपयों के मूल्यवाली मणि को एक कौड़ी के बदले बेचता है।।1215।।
जो निदान करता है, वह लोहे की कील के लिये अनेक वस्तुओं से भरी नाव को जो समुद्र में जा रही है तोड़ता है, भस्म के लिये गोशीर्ष चन्दन को जलाता है और धागा प्राप्त करने के लिये मणिनिर्मित हार को तोड़ता है। इस तरह जो निदान करता है वह थोड़े से लाभ के लिये बहुत हानि करता है।1216।।
जैसे व्यापारी लोभवश लाभ के लिये अपना माल बेचता है, वैसे ही निदान करने वाला मुनि भोगों के लिये धर्म को बेचता है। 1238 ।।
जैसे मत्स्य भय को न जानते हुए जाल के मध्य उछलते-कूदते हैं, वैसे ही जीव संसार की चिन्ता न करके परिग्रह आदि में आनन्द मानते हैं।।1269।।
भुंजतो वि सुभोययणमिच्छदि जध सूयरो समलमेव। तध दिक्खिदो वि इंदियकसायमलिणो हबदि कोई॥
जैसे सुअर सुन्दर स्वादिष्ट आहार खाते हुए भी चिरंतन अभ्यासवश विष्टा ही खाना पसन्द करता है। उसी प्रकार व्रतों को ग्रहण करके भी कोईकोई इन्द्रिय और कषाय रूप अशुभ परिणाम वाले होते हैं। 1312।।
वाह भयेण पलादो जूहं दठूण बागुरापडिदं। सयमेव मओ बागुरमदीदि जह जूहतण्हाए।।