________________
92]
[जिनागम के अनमोल रत्न परन्तु स्त्रियों के साथ एक स्थान पर क्षणभर भी रहना निन्दनीय है-अच्छा नहीं है।।755।। .
- जिसकी आत्मा सत्समागमरूप अमृत के प्रवाह से निरन्तर आर्द-गीली की गई है, उन मनुष्यों की विषय-तृष्णा भोगों के सुलभ होने पर भी शान्त हो जाती है।।790।।
सत्पुरूषों की संगति महान् कल्पवृक्ष के समान मनवांछित समस्त फलों के प्राप्त कराने में समर्थ है। 1807 ।।
जिसको पा करके स्वप्न में भी दुर्बुद्धि उदित नहीं होती, वह साधुजनों के उपदेश का एक अक्षर भी मुक्ति की प्राप्ति का कारण होता है। 1808 ।।
परिग्रही की संगति को प्राप्त होकर यहाँ प्राणियों के गुण तो अणुप्रमाण भी नहीं रहते, परन्तु दोष सुमेरूपर्वत के समान विशाल हो जाते हैं। 1828 ।।
जो मनुष्य परिग्रहरूप कीचड़ में फंसकर मोक्ष के लिये प्रयत्न करता है वह मूर्ख फूलों के बाणों से मानों सुमेरू पर्वत को खण्डित करता है।।838 ।।
कदाचित् सूर्य अपने तेज को भले छोड़ दे अथवा मेरू पर्वत अपनी स्थिरता को भी भले छोड़ दे, परन्तु परिग्रह से व्याप्त मुनि कभी जितेन्द्रिय नहीं हो सकता है।।845 ।।
जो बाह्य धन-धान्यादिकरूप परिग्रह को ही नहीं छोड़ सकता, वह नपुंसक भविष्य में कर्म की सेना को कैसे नष्ट करेगा? ।।846।।
पण्डित जनों ने धन को कामदेव रूप सर्पराज की बांबी, राग-द्वेषादि का स्थान तथा अविद्याओं का क्रीड़ाग्रह बताया है।।847 ।।
धन की तृष्णा से मलिन किया गया जीव जिस प्रबल कर्म को बांधता है, उसकी शान्ति क्लेश का अनुभव करते हुए करोड़ों जन्मों में कदाचित् ही हो पाती है।।851।।
जिस प्रकार यहां मांस से संयुक्त पक्षी को अन्य पक्षी घेरकर पीड़ा