Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ 174] [जिनागम के अनमोल रत्न है सर्व श्रुत-परिचित-अनुभूत, भोगबंधन की कथा। परसे जुदा एकत्व की, उपलब्धि केवल सुलभ ना।। तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।।5।। दर्शाउ एक विभक्त को, आत्मातने निज विभव से। दर्शाउं तो करना प्रमाण, न छल ग्रहो स्खलना बने।। ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव।।6।। नहिं अप्रमत्त प्रमत्त नहिं, जो एक ज्ञायक भाव है। इस रीति शुद्ध कहाय अरू, जो ज्ञात वो तो वो हि है।। बवहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।।11।। व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ है। भूतार्थ आश्रित आत्मा, सदृष्टि निश्चय होय है ।। भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।13।। भूतार्थ से जाने अजीव जीव, पुण्य पाप रू निर्जरा। आश्रव संवर बंध मुक्ति, ये हि समकित जानना।। जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अबिसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।। अनबद्धस्पृष्ट अनन्य अरू, जो नियत देखे आत्म को। अविशेष अनसंयुक्त उसको शुद्धनय तू जान जो।।14।। जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध पुढे अणण्णमविसेसं। अपदेशसंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सब्बं ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234