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जिनागम के अनमोल रत्न]
किं च कैश्चिच्च धर्मस्यं चत्वारः स्वामिनः स्मृताः। सदृष्ट्याद्यप्रमत्तान्ता यथायोगेन हेतुना।।
कितने ही आचार्यों ने यथायोग्य निमित्त से सम्यग्दृष्टि से अप्रमत्त तक चार गुणस्थानवी जीवों को धर्मध्यान के स्वामी माना है।n329 ।।
परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वञ्चितः। आपातमात्ररम्यैस्तैर्विषयैरन्तनीरसै औलनीरसै
॥ अहं च परमात्मा च द्वावेतौ ज्ञानलोचनौ। अतस्तं ज्ञातुमिच्छामि तत्स्वरूपोपलब्धये ।। मम शक्त्या गुणग्रामं व्यक्त्या च परमेष्ठिनः। एतावानावयोर्भेदः शक्ति व्यक्तिस्वभावतः।।
स्वभाव से परमात्मा, उत्कृष्ट ज्ञानरूप ज्योति से संयुक्त तथा संसार में श्रेष्ठ होकर भी मैं केवल प्रारम्भ में रमणीय प्रतीत होने वाले, परन्तु अन्त में नीरस स्वभाव वाले परिणाम में दुखदायक-उन विषयों से ठगा गया हूँ।
___ मैं और परमात्मा-ये दोनों ही ज्ञानरूप नेत्र से सहित हैं। इसीलिये मैं उस परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के लिये उसे जानने की इच्छा करता हूँ। ___मुझमें ज्ञानादि गुणों का समुदाय शक्ति के रूप में अवस्थित है तथा परमात्मा में वह व्यक्तरूप से अवस्थित है, बस; शक्ति और व्यक्ति रूप स्वभाव से हम दोनों में इतना ही भेद है।।1477 से 1479 ।। ... ___मैं अनन्त वीर्य, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्त सुख स्वरूप होकर भी क्या आज शत्रुभूत उस कर्मरूप विषविक्ष को निर्मूल नहीं कर सकता हूँ।।1483।। ___ मुझे अनादि काल से उत्पन्न हुई अविद्यारूप शत्रु की फांस को काटकर आज ही यथार्थ में आत्मस्वरूप का निश्चय करना है। 1485 ।।
जो आत्मस्वरूप को नहीं जानता वह कभी परमात्मा को नहीं जान