Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 164
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [163 है उस-उसको अनात्मदृष्टि द्वारा अर्थात् कि वह आत्मा स्वरूप नहीं ऐसा समझकर त्याग करना चाहिये। इस प्रकार विकल्पों का उदय न हो तो आत्मा स्वच्छ चिन्मयरूप से प्रकाशता है।।20।। .. निश्चयात् सचिदानन्दाद्व यरूपं तदस्म्यहम्। ब्रह्मेति सतताभ्यासाल्लीये स्वात्मनि निर्मले।। निश्चय से, जो सत्-चित्-आनंद के साथ अद्वैत ब्रह्मरूप है ये मैं ही हूँ इस प्रकार निरन्तर अभ्यास ही 'मैं और निर्मल आत्मा' ऐसे आत्मा में लीन होता है।।30।। यश्चक्रीन्दाहमिन्दादि - भोगिनामपि जातु न। शश्वत्सन्दोहमानन्दो मामेवाभिव्यनज्मितम् ।। जो आनन्द चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र और धरणेन्द्र को भी कभी प्राप्त नहीं होता ऐसा शाश्वत् आनन्द-सन्दोहक का मैं स्व में ही अनुभव करता हूं।।41 ।। स एवाहं स एवाहमिति भावयतो मुहुः। योगः स्यात् कोऽपि निःशब्दः शुद्धस्वात्मनि यो लय॥ .. ये शुद्ध स्वरूप मैं ही हूं-ये शुद्ध स्वरूप मैं ही हूं इस प्रकार बारम्बार भावना करने वाला आत्मा अपने को शुद्ध स्वआत्मा में लीन करता है और ऐसे योग को कोई अनिर्वचनीय योग कहते हैं ।।57।। न मे हे यं न चाऽऽदेयं किंचित् परमनिश्चयात् । तद्यत्नसाध्या वाऽयत्नसाध्या वा सिद्धि रस्तुमे ।। परन्तु परम शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से मेरे लिये न तो कुछ हेयरूप है और न तो कुछ आदेयरूप है। मुझे तो आत्मसिद्धि-स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति की इच्छा है फिर भले वह यत्नसाध्य हो कि अयत्नसाध्य हो अर्थात् उपाय करते मिले या बिना उपाय मिले।।65 ।।

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