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जिनागम के अनमोल रत्न]
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श्रोती भावना का स्वरूप तथा हि चेतनाऽसंख्य-प्रदेशोमूर्तिवर्जितः।
शुद्धात्मा सिद्धरूपोऽस्मि ज्ञान-दर्शन लक्षणः।।147।।
ध्याता श्रोती भावना में भाता है कि मैं चेतन हूँ, असंख्य प्रदेशी हूं, मूर्ति रहित अमूर्त हूँ, सिद्धसमान शुद्धात्मा हूँ और ज्ञान-दर्शन लक्षण से युक्त हूँ।
नाऽन्योऽस्मि नाऽहमस्त्यन्यो नाऽन्यस्याऽहं न मे परः।
अन्यस्त्वन्योऽहमेवाऽहमन्योऽन्यस्याऽहमेव मे।148।। मैं अन्य नहीं, अन्य वह मैं नहीं । मैं अन्य का नहीं, और अन्य मेरा कुछ नहीं-वास्तव में अन्य वह अन्य ही है, मैं ही मैं हूँ। अन्य जो है वह अन्य का है और मैं ही मेरा हूँ।
भावार्थ - आत्मा स्वयं स्व-पर ज्ञप्तिरूप है उसे अन्य कोई कारण या निमित्त की जरूरत नहीं, इसलिये करणान्तर की चिन्ता का त्याग करके स्वज्ञप्ति द्वारा आत्मा को जानना चाहिये ।।162 ।।
___ ध्यान की सिद्धि के लिये मुख्य उपाय इस प्रकार का चतुष्टय है : 1. गुरू का उपदेश, 2. श्रद्धा, 3. निरन्तर अभ्यास, 4. स्थिर मन - ये चार निमित्त हैं। 218।।
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__ हे भव्य! लोक में नमन करने योग्य पुरुष भी जिनको नमस्कार करते हैं, ध्याने योग्य पुरुष भी जिसका निरन्तर ध्यान करते हैं तथा स्तुति करने योग्य पुरुष भी जिसकी स्तुति करते हैं ऐसा परमात्मा इस देह में ही विराजता है। उसको जैसे भी बने वैसे जान।
-आचार्य कुन्दकुन्द : मोक्षपाहुड गाथा 103
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