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जिनागम के अनमोल रत्न] धर्म में मन को स्थिर नहीं करता। यह ठीक ही है, यदि ऐसा न होता तो पुरूष इस पृथ्वी पर संसार कैसे पाता ? सर्वत्र भ्रमण कैसे करता?
.....एक प्राणी नाना जन्मों में भ्रमण करते हुए जो अपरिमित दुख भोगता है उसका अनन्तभाग भी सुख सब शरीरों में मिलकर भी नहीं होता। तब इस जन्मरूपी समुद्र में एक जीव उस सुख का कितना भाग भोगता है? जैसे वन में एक अत्यन्त डरा हुआ बेचारा हिरण सब ओर से त्रस्त रहता है, वैसी ही दशा जीव की संसार में है। अनन्त भवों में एक प्राणी के द्वारा प्राप्त सुख की जब यह स्थिति है, तो एक जन्म में जो सुख प्राप्त होता है वह कितना होगा? अत्यल्प भी यह सुख-दुख के समुद्र में गिरकर दुखरूप ही हो जाता है, जैसे मीठे मेघों का पानी लवण समुद्र में पड़कर खारा हो जाता है।।448 ।।
अपने काम में तत्पर किन्तु दूसरे का हित करने में आलसी मनुष्य लोक में बहुत हैं, किन्तु अपने कार्य की तरह दूसरों के कार्य की चिन्ता करने वाले मनुष्य लोक में दुर्लभ हैं।
जो अपने कार्य की चिन्ता में तत्पर होते हुए दूसरों के कार्य को भी कठोर एवं कटुक वचनों से साधते हैं वे पुरूष लोक में अत्यन्त दुर्लभ हैं। 484-485।।
एगम्यि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो। ण हु सो हिंडदि बहुसो सत्तट्ठभेवे पमोत्तूण।।681 ।।
जो जीव एक भव में समाधिमरण पूर्वक मरता है व सात-आठ भव से अधिक काल तक संसार में परिभ्रम नहीं करता। - जं वद्धमसंखेज्जाहिं रयं भवसदसहस्सकोडीहिं।
सम्मत्तुप्पत्तीए खवेइ तं एयसमयेण।।716 ।।
असख्यात लक्षकोटिभवों में जो कर्मरज बांधा है उसे सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर एक समय में ही जीव नष्ट कर देता है।