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जिनागम के अनमोल रत्न]
[73 सुशील यति-मुनि श्रेष्ठ है, जो अपने संगी के शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्र को बढ़ाता है। आपको उसी का आश्रय लेना चाहिये।।356 ।।
दुर्जन के द्वारा की गई पूजा से संयमीजनों के द्वारा किया गया अपमान श्रेष्ठ है। कारण कि दुर्जन का संसर्ग शील का नाशक है किन्तु संयमी जनों द्वारा किया गया अपमान शील का नाशक नहीं है।।357।।
अप्पपसंसं परिहर सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।।361।।
अपनी प्रशंसा सदा के लिये छोड़ दो। अपने यश को नष्ट मत करो क्योंकि समीचीन गुणों के कारण फैला हुआ भी आपका यश अपनी प्रशंसा करने से नष्ट होता है। जो अपनी प्रशंसा करता है वह सज्जनों के मध्य तृण की तरह लघु होता है।
ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स। धंति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव।।364।। संतं सगुणं कित्तिज्जंतं सुजणो जणम्मि सोदूण। लज्जदिकिह पुण सयमेव अप्पगुण कित्तणंकुज्जा।।365।।
अपने गुणों की प्रशंसा करने वाले पुरूष में अविद्यमान गुण प्रशंसा करने से उत्पन्न नहीं होते। स्त्री की तरह खूब हाव-भाव करने पर भी नपुंसकनपुंसक ही रहता है, युवती नहीं बन जाता।
सज्जन मनुष्यों के बीच में अपने विद्यमान गुण की भी प्रशंसा सुनकर लज्जित होता है। तब वह स्वयं ही अपने गुणों की प्रशंसा कैसे कर सकता है।
जो कषाय से उन्मत्त (पागल) है वही उन्मत्त है ।। 1325 ।।
वचन से गुणों को कहना उनका नाश करना है और आचरण से गुणों का कथन उनको प्रगट करना है। 367 ।।