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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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अंधत्व नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार सद्गुरू के वचनरूपी सूर्य का तेज मिलने पर भी जिनका मिथ्यात्व अन्धकार नष्ट नहीं होता, वे जीव उल्लू जैसे ही हैं । जिसकी होनहार भली नहीं है उसे सुगुरू का सदुपदेश कभी रूचता नहीं है, विपरीत ही भासित होता है । 1108 ।।
तीन लोक के जीवों को निरन्तर मरता देखकर भी जो जीव अपनी आत्मा का अनुभव नहीं करते, पापों से विराम नहीं लेते, ऐसे जीवों के ढीटपने को धिक्कार है ।।109 ।।
अइया अइ पाविट्ठा, सुद्धगुरूजिणवरिंद तुल्लंति । जो इह एवं मण्णइ, सो विमुहो सुद्ध धम्मस्स ।।130 ।।
इस काल में जो पापिष्ठ और परिग्रह के धारी कुगुरूओं की सद्गुरू या जिनराज से तुलना करता है और ऐसा मानता है कि पापी कुगुरू एवं सुगुरू समान हैं-वह जीव पवित्र जिनधर्म से विमुख है ।
जिस जिनेन्द्रदेव को तुम प्रीतिपूर्वक पूजते हो, नमस्कार करते हो और उनके वचनों का पक्ष करते हो; उन जिनेन्द्रदेव के वचनों को तुम मानते नहीं हो, तो फिर तुम्हारे नमस्कार करने और पूजने का क्या फल मिलेगा ? ।।131 ।। मा मा जंपह बहुअं, जे बद्धा चिक्कणेहिं कम्मेहिं । सव्वेसिंतेसिं जड़, इहि उवएसो महादोषो । 1125 ।।
जो जीव बहुत चिकने कर्मों से बंधे हुए हैं उन्हें उपदेश देना महादोष है। अतः उन्हें उपदेश मत दो, मत दो।
अहो! वह मंगल दिवस कब आयेगा कि जब मैं श्री गुरू के पादमूल में उनके चरणों के समीप बैठकर जिनधर्म का श्रवण करूंगा? कैसा होकर सुनूंगा? उत्सूत्र से लेशमात्र भी रहित होकर अर्थात् अज्ञानरूपी विष के कण के अंशमात्र से भी रहित होकर सुनूंगा ।।128 ।।