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[जिनागम के अनमोल रत्न जे जे दीसंति गुरू, समय परिक्खाइ तेण पुज्जति। पुण एगं सद्दहणं, दुप्पसहो जाव जं चरणं ।।139।।।।
वर्तमान समय में संसार में जो-जो गुरू दिखाई देते हैं या गुरू कहलाते हैं उन सबकी शास्त्र द्वारा परीक्षा करके पूजना योग्य है। जिसमें शास्त्रोक्त गुण नहीं पाये जायें, उनको तो मूरों के सिवाय कोई भी नहीं पूजता। आज कल तो सच्ची श्रद्धा करना भी कठिन है तो जीवनपर्यन्त चारित्र धारण करना कठिन कैसे नहीं होगा? इसलिये भी सम्यक् चारित्र के धारक हैं वे गुरू ही पूज्य हैं।
संपई दूसम समये, णामायरिएहिं जणिय जण मोहा।
सुद्ध धम्माउ णिउणा, चलति बहुजण पवाआहो।141।। - इस दुःखम पंचमकाल में आचार्य व गुरूपने के गुणों से रहित होकर भी नामधारी आचार्य व गुरू कहलाते हैं। उन्होंने लोक में ऐसा अविद्यारूपी अंधकार फैला दिया है जिससे निपुण पुरूष भी धर्म से चलायमान हो जाते हैं, तो भोले जीव उनके मायाजाल में क्यों नहीं फसेंगे? जरूर फसेंगे। उनका मायाजाल कैसा है? अनेक मूर्ख जीवों द्वारा चलाया भेड़चाल जैसा है, जिसे ज्ञानी पुरूष भी मानने लगते हैं।
जो जीव जिनेन्द्रदेव को मानते हुए भी अन्य कुदेवादिकों को प्रणाम करते हैं उन मिथ्यात्वरूपी सन्निपात से ग्रस्त जीवों का कौन वैद्य है? | 14 ।।
इस विषम दुःखमा पंचमकाल में मैं यह जीवन मात्र धारण किये हूं और श्रावक का नाम भी धारण किये हूं वह भी महान आश्चर्य है।
भावार्थ :- इस काल में मिथ्यात्व की प्रवृत्ति बहुत है, हम जीवित हैं और श्रावक कहलाते हैं वह भी आश्चर्य है।।159 ।।
दूध और पानी मिले होने पर भी हंस स्वभाव से ही बिना परिश्रम के दूध को ही पीता है, उसी प्रकार सज्जन ज्ञानी हंस शास्त्र समुद्र में से | भेदज्ञान द्वारा केवल आत्मा के सदगुणों को ही ग्रहण करते हैं।
श्री नेमिश्वर वचनामृत शतक, श्लोक 5.