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[जिनागम के अनमोल रत्न
इस दुखद पंचम काल में गुरू तो भाट जैसे हो गये हैं जो शब्दों द्वारा दातार की स्तुति करके दान लेते हैं। ऐसे दाता और दान लेने वाले दोनों ही जिनमत के रहस्य से अनभिज्ञ हैं, संसार समुद्र में डूबते हैं ।
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शुद्धा जिण आणइया केसिं पावाण हुंति सिरसूलं । जेसिं तं सिरसूलं के सिं मूढ़ा ण ते गुरूणो ।।34 ।।
जिनराज की शुद्ध आज्ञा में तत्पर रहने वाले पुरूष कितने ही पापी जीवों को सिरदर्द के समान हैं क्योंकि यथार्थ जिनधर्मी के पास मिथ्यादृष्टियों के मत चल नहीं पाते, इसीलिये वे उन्हें अनिष्ट लगते हैं । उन मूर्ख जीवों को वे ज्ञानी 'गुरु' नहीं, सिरदर्द के समान लगते हैं ।
भावार्थ :- जो जीव मिथ्यादृष्टियों को गुरू मानते हैं वे यथार्थ श्रद्धावान को गुरू मानते हैं तथा उन्हें यथार्थ मार्ग का लोप करने वाला अनिष्ट समझते हैं। ऐसे मिथ्यादृष्टियों का संयोग जीवों को कभी न हो ।
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'हा हा गुरूय अकज्जं, सायी गहु अत्थि कस्स पुक्करिमो । कह जिण वयण कह सुगुरु, सावया कहय इदि अकज्जं । 135 ।। हाय! हाय! महा अनर्थ है कि आज कोई राजा प्रगट नहीं है, किसके पास जाकर पुकार करें ! कि जिनवचन क्या है? सुगुरु कैसा होता है? श्रावक कैसे होते है? वह बड़ा अकार्य - अन्याय है।
हम
सप्पे दिट्ठे णासई, लोओ णहु किंपि कोई अक्खेई । जो चयइ कुगुरू सप्पं, हा मूढा भणइ तं दुद्वं । 36 ।।
अरे रे ! लोग सर्प को देखकर दूर भागते हैं उनको तो कोई कुछ भी नहीं कहता है; परन्तु जो कुगुरू रूपी सर्प को छोड़ देते हैं उन्हें मूर्ख लोग दुष्ट कहते हैं, यह बड़े खेद की बात है।
भावार्थ :- जो कुगुरू हैं वे सर्प से भी अधिक दुष्ट हैं । सर्प का त्याग करने वाले को तो सभी लोग अच्छा कहते हैं, और जो कुगुरू को त्यागता है