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जिनागम के अनमोल रत्न]
[51 यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि।। यथा यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि।। तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।। जस जस आतमतत्त्व मैं, अनुभवि आता जाय। तस तस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय।। जस जस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय। तस तस आतम तत्त्व मैं, अनुभव बढ़ता जाय।।
ज्यों ज्यों संवित्ति (स्वानुभव) में उत्तम तत्त्व का अनुभवन होता जाता है, वैसे वैसे उस योगी को आसानी से प्राप्त होने वाले विषय भी अच्छे नहीं लगते।
ज्यों ज्यों सहज में प्राप्त होने वाले इन्द्रियों के विषय-भोग रूचिकर प्रतीत नहीं होते, त्यों त्यों स्वात्म-संवेदन में निजात्मानुभव की परिणति वृद्धि को प्राप्त होती जाती है।।37-38 ।।
वु वन्नपि हि न व ते, गच्छन्नपि न गच्छति। स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति।।
देखत भी देखे नहीं, बोलत बोलत नाहिं । .. दृढ़ प्रतीति आतममयी, चालत चालत नाहिं।।
जिसने आत्मस्वरूप में स्थिरता प्राप्त की है, ऐसा योगी बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता और देखते हुए भी नहीं देखता।।1।।
किमिदं कीदृशं कस्य, कस्मात्क्वेत्यविशेषयन्। स्वदेह मपि नावैति योगी योग परायणः।। क्या कैसा किसका किसमे, कहां यह आतमराम। तज विकल्प निज देह न जाने, योगी निज विश्राम।।
ध्यान में लगा हुआ योगी, यह क्या है? किसका है? क्यों है? कहां है? इत्यादिक विकल्पों को न करते हुए अपने शरीर को भी नहीं जानता। 42 ।।