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[जिनागम के अनमोल रत्न एदे सब्बे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु। सब्बे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा।।49॥ व्यवहारनय से हैं कहे सब जीव के ही भाव ये। हैं शुद्धनय से जीव सब भवलीन सिद्ध स्वभाव से।। यह सब भाव वास्तव में व्यवहारनय का आश्रय करके (संसारी जीवों में विद्यमान) कहे गये हैं; शुद्धनय से संसार में रहने वाले सब जीव सिद्धस्वभावी हैं।
शुद्ध निश्चय नयेन विमुक्तौ, संसृतावपि च नास्ति विशेषः। एवमेव खलु तत्त्वविचारे,
शुद्ध तत्वरसिकः प्रवदन्ति ।।73 ।। "शुद्धनिश्चयनय से मुक्ति में तथा संसार में अन्तर नहीं है", ऐसा ही वास्तव में, तत्व विचारने पर शुद्धतत्व के रसिक पुरूष कहते हैं।
भवति तनुबिभूतिः कामिनीनां विभूति, स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम्। सहज परम तत्वं स्वस्वरूपं विहाय, ब्रजसि बिपुलमोहं हेतुना केन चित्रम्।।79।।
कामिनियों की जो शरीर विभूति का, हे कामी पुरूष! यदि तू मन में स्मरण करता है, तो मेरे वचन से तुझे क्या लाभ होगा? अहो! आश्चर्य होता है कि सहज परमतत्व को-निजस्वरूप को छोड़कर तू किस कारण विपुल मोह को प्राप्त हो रहा है।
नारक नहीं, तिर्यंच-मानव-देव-पर्यय मैं नहीं। कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं।।7।।