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जिनागम के अनमोल रत्न]
[47 लद्धणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइसुजणत्ते। तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं।।157।। निधि पा..मनुज तत्फल वतन में गुप्त रह ज्यों भोगता।
त्यों छोड़ परजन-संग ज्ञानी ज्ञान निधि को भोगता।। जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य) निधि को पाकर अपने वतन में (गुप्तरूप से) रहकर उसके फल को भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी पर जनों के समूह को छोड़कर ज्ञाननिधि को भोगता है।।157।।
ईसाभावेण पुणो केई जिंदति सुन्दरं मग्गं। तेसि बयणंसोच्चाऽभत्तिंमा कुणहजिणमग्गे।181।। जो कोई सुन्दर मार्ग की निन्दा करे मात्सर्य में। सुनकर वचन उसके अभक्तिन लीजियेजिनमार्ग में।। परन्तु ईर्षाभाव से कोई लोग सुन्दर मार्ग को निन्दते हैं उनके वचन सुनकर जिनमार्ग के प्रति अभक्ति नहीं करना।।186।। .
धन्य है जिनवाणी माता... हे जिनवाणी! जो प्राणी तेरा विधिपूर्वक स्मरण करता। है, अध्ययन करता है, उसके लिये ऐसी कोई लक्ष्मी नहीं है, ऐसे कोई गुण नहीं है, ऐसा कोई पद नहीं है, जिसे तू वर्ण भेद के बिना न देती हो। यह गुरू का उपदेश है। अभिप्राय यह है कि तू अपना स्मरण करने वालों के लिये समान रूप से अनेक प्रकार की लक्ष्मी, अनेक गुणों और उत्तम पद को प्रदान करती है।
-आचार्य पानन्दि : पद्मनन्दि पंचविंशति श्रुतदेवता स्तुति, श्लोक-261
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