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जिनागम के अनमोल रत्न] करने वाले, मौनी, श्रोता, कृतज्ञ, व्यसन और इन्द्रियों के जीतनेवाले, उपसर्गों के सहने में धीर-वीर, परिग्रहों से रहित और नाना प्रकार की कलाओं के जानकार असंख्यात मनुष्य है; तथापि 'शुद्धचिद्रूप' के स्वरूप में अनुरक्त कोई एक विरला ही है। 11-1।।
परन्तु जो जीव आर्यखण्ड में उत्पन्न हुए हैं, उनमें से भी विरले ही शुद्धचिद्रूप के ध्यानी और व्रतों के पालक होते हैं तथा इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तो इस समय दो तीन ही हैं अथवा हैं ही नहीं।।11-15 ।।
इस क्षेत्र में प्रथम तो इस समय सम्यग्दृष्टि पाक्षिक जैनी ही विरले हैं यदि वे भी मिल जायें तो अणुव्रतधारी मिलने कठिन हैं । अणुव्रतधारी भी हों तो धीर-वीर महाव्रतधारी दुर्लभ हैं। यदि वे भी हों तो तत्व-अतत्वों के जानकार बहुत कम हैं। यदि वे भी प्राप्त हो जायें तो शुद्धचिद्रूप में रत मनुष्य अत्यंत दुर्लभ है। 11-17।। ___संसारी जीवों को राजा, जाति, चोर, अग्नि, जल, बैरी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईति, मृत्यु, रोग, दोष और अकीर्ति से सदा भय बना रहता है। धन, कुटुम्बी, मनुष्य, गाय और महल की चिन्तायें लगी रहती हैं एवं उनके नाश से शोक होता रहता है, इसलिये उन्हें शास्त्ररूपी अगाध समुद्र से उत्पन्न शुद्धचिद्रूप के ध्यान की प्राप्ति होना नितान्त दुर्लभ है। 13-7।।
शुद्धचिदूपकस्यांशो द्वादशांगश्रुतार्णबः।
शुद्धचिद्रूपके लब्धे तेन किं मे प्रयोजनं।।
आचरांग, सूत्रकृतांग आदि द्वादशांगरूपी समुद्र शुद्धचिद्रूप का अंश है, इसलिये यदि शुद्धचिद्रूप प्राप्त हो गया है तो मुझे द्वादशांग से क्या प्रयोजन! वह तो प्राप्त हो ही गया।।13-9।।