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॥वि० स्था० पू०॥
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कालोक प्रकास ॥१॥ बिनासी अप्रमित शचल । पदवासी विकार । अगम गो चर शजर राज । नमो सिझ जयकार ॥२॥ ॥राग सोरठ कुंदकिरणशशिऊजलोरेदेवा ॥
अनुनव परमानंदसुंरे बाला । परमातम पद बंदो रे। करम निकंदो बंदिने रे वा० । लहि जिनपद चिरनंदो रे ॥१॥ गगन पए शंतर बली रे वा०। समयांतर अणफरसी रे
व्य सगुण परजायना रे वाला। एक समय विध दरसी रे ॥ २ ॥ एक समय शजु गति करीरे वाला। नए परमपद रामी रे।नांजै सादि अनंत रे वा० । निरुपाधिक सुख धामी रे॥३॥ अखिल करममल परिहरी रे बाला। सिझ सकल सुख कारी रे । विमल चिदानं द घन थयारे वाला । वर इकतीस गुण धारी रे ॥४॥ उतपन्नता वलि विगमता रे बाला ध्रवता ३ त्रिपदी संगें रे। प्रनु मैं अनंत च तुष्कता रे बाला। सोहें शमकम नंगें रे॥५॥ पनर १५ नेद ए सिछ थयारे बाला । सह जानंद स्वरूपी रे। परम ज्योति मैं परिण
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